Book Title: Bandhtattva
Author(s): Kanhiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 288
________________ संसार की समस्त घटनाएँ कारण-कार्य के नियमानुसार नैसर्गिक व प्राकृतिक विधान से घटती हैं। प्राकृतिक विधान में किसी का भी अहित नहीं है। यहाँ तक कि प्राकृतिक घटना से आया हुआ दुःख भी दोषों के त्याग की शिक्षा देने एवं पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा करने वाला ही होता है। शिक्षा व कर्म-निर्जरा प्राणी के लिए हितकर ही होती है। वीतराग इस तथ्य से पूर्ण परिचित होते हैं। अतः उन्हें संसार की कोई भी घटना क्षुब्ध नहीं करती। यही अनन्त भोग की उपलब्धि है। उपभोगान्तराय एवं अनन्त उपभोग ___ आत्मिक भोग-जन्य सुख का बार-बार या निरंतर मिलते रहना ही उपभोग है। इसमें बाधा होना उपभोगान्तराय है। यह नियम है कि विषय भोग का सुख क्षणिक होता है। वह सुख दो क्षण भी एकसा नहीं रहता, प्रतिक्षण क्षीण होता है और अंत में नीरसता (सुख रहित अवस्था) में बदल जाता है। जो सुख इस क्षण भोग लिया, वह सुख दूसरे क्षण नहीं मिलेगा, उसमें क्षीणता आ ही जायेगी। एक क्षण में मिला हुआ सुख दुबारा कभी नहीं मिलेगा, उसमें क्षीणता आयेगी ही, वह जीर्ण होगा ही। यही कारण है कि हम अपने जीवन में खाने, पीने, पहनने, देखने, सुनने, सूंघने आदि के सैकड़ों सुखों का भोग प्रतिदिन करते रहे, परन्तु उनमें से कोई भी सुख आज तक नहीं रहा, सुख में लेश मात्र भी वृद्धि नहीं हुई। जैसे रेल यात्रा में वस्तुएँ सामने से आती और पीछे जाती प्रतीत होती हैं, उसी प्रकार सुख आता और जाता प्रतीत होता रहा, रहा कुछ भी नहीं। फलतः सुख पाने की तृष्णा ज्यों की त्यों बनी हुई है, उसमें किंचित् भी कमी नहीं हुई तथा आगे भी कितनी ही सुख-सामग्री संगृहीत कर सुख भोगा जाये तब भी न सुख में वृद्धि होने वाली है और न सुख की तृष्णा मिटने वाली है अर्थात् विषय सुख का परिणाम शून्य है तथा सुख के भोगी को असंख्य दुःख भोगने ही पड़ते हैं। अतः विषय सुख के त्याग से निज सुख की उपलब्धि होती है। निज सुख की अभिव्यक्ति प्रेम के रूप में होती है। प्रेम का रस नित नूतन रहता है, वह सागर की तरह लहराता है। न तो इसकी क्षति होती है, न इसकी निवृत्ति होती है, न इसकी पूर्ति होती है, न इसकी तृप्ति होती है और न इसमें अतृप्ति ही रहती है। यह क्षति, निवृत्ति, अपूर्ति, तृप्ति, अतृप्ति से रहित विलक्षण रस या सुख है। यही अनन्त परिभोग है। इसकी अन्तराय कर्म 209

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