Book Title: Bandhtattva
Author(s): Kanhiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 279
________________ संक्षेप में कहा जा सकता है कि मद या अभिमान नीच गोत्र का एवं निरभिमानता, मृदुता आदि उच्च गोत्र के बंध-हेतु हैं। अभिमान सदैव अर्जित धन, विद्या, बल, योग्यता आदि का होता है। अर्जित सामग्री अनित्य या विनाशी होती है। उसका वियोग अवश्यंभावी है। जो सदा साथ न दे वह 'पर' है। पर के संग्रह के आधार पर अपना मूल्यांकन कर गर्व करना, उससे अपना गौरव मानना प्रथम तो पर को मूल्य व महत्त्व प्रदान करना है साथ ही स्वयं का मूल्य घटाना व खोना है। अपने को दरिद्र व हीन बनाना है। कोई कितना भी अर्जित करे, जगत् में उससे असंख्यात गुना अनर्जित रहता है। जिसका उसके जीवन में अभाव है, कमी है, उससे वह हीन है। अतः पर के संग्रह या अर्जन के आधार पर गर्व करने वाले, गौरवशाली समझने वाले अभिमानी व्यक्ति को हीनता-लघुता (छोटेपन) का अनुभव होता ही है, यह प्राकृतिक विधान है। अपने में हीनता या लघुता का अनुभव होना ही नीच गोत्र है। इसके विपरीत जो निरभिमानी है वह तन, धन, जन, बल, विद्या, बुद्धि आदि पर एवं विनाशी की प्राप्ति-अप्राप्ति के आधार पर अपना मूल्यांकन नहीं करता है, अपने को महान्, संपन्न व बड़ा नहीं मानता है, उसे हीनता या विपन्नता, लघुता व अभाव का अनुभव नहीं होता है, क्योंकि उसके तृष्णा नहीं होती है। जहाँ हीनता, विपन्नता, लघुता व अभाव नहीं है, सच्चे अर्थों में वहाँ ही महानता, संपन्नता, पूर्णता है, वही उच्च गोत्री है। __यह नियम है कि जिसे गुरुता व बड़प्पन का अनुभव नहीं होता है, उसे लघुता-हीनता का भी अनुभव नहीं होता है। यही कारण है कि पूर्ण निरभिमानी होने पर उच्च गोत्र की चरम उत्कृष्ट अवस्था पर पहुंचकर मुक्त अवस्था में गोत्र कर्म से अतीत होने पर, सिद्धों में अगुरु-लघु गुण सदा के लिए प्रकट हो जाता है। अगुरुलहु अत्तं णाम सव्वजीवाणं पारिणामियमत्थि सिद्धेसु खीणेसु कम्मेस वि तस्सुवंलंभा।। -धवला पुस्तक 6.1.9.278 पृ.113 ___ अगुरुलघु नामक गुण सर्व जीवों में पारिणामिक है, क्योंकि शेष कर्मों से रहित सिद्धों में भी उसका सद्भाव पाया जाता है। अगुरुलघु जीव का स्वाभाविक गुण है। स्वभाव होने से पारिणामिक भाव है। 200 गोत्र कर्म

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