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में किसी भोग्य पदार्थ की कामना होना, दान का अभिमान करना दानान्तराय के उदय एवं बंध का हेतु है ।
यह नियम है कि जितना - जितना राग घटता जाता है, उतना - उतना करुणा भाव, आत्मीयभाव, मैत्रीभाव, वत्सलभाव बढ़ता जाता है और वीतराग हो जाने पर यह करुणा, मैत्री, वात्सल्य आदि सब भाव असीम व अनन्त हो जाते हैं जो सर्व प्राणियों के प्रति मैत्री भाव के रूप में, सर्वहितकारी भाव के रूप में प्रकट होते हैं ।
वीतराग की अनन्त करुणा, अनन्त मैत्री भाव एवं अनन्त वत्सलता अनन्त दान के ही विभिन्न रूप हैं । वीतराग को अपने लिए तो कुछ करना शेष रहता नहीं है, अतः वीतराग की प्रत्येक प्रवृत्ति या निवृत्ति विश्वहित के लिए होती है। उनमें विश्व वात्सल्य भाव होता है। वे जगद् वत्सल होते हैं । यही विश्व वात्सल्य भाव अनन्त दान है। इस प्रकार वीतरागता से अनन्तदान की उपलब्धि होती है। अथवा जो वीतराग हो जाता है उसे संसार में अपने स्वयं के लिए कुछ भी पाना शेष नहीं रह जाता है, देहादि जो कुछ भी उसे प्राप्त है, वह सब संसार के लिए है । इस दृष्टि से भी वीतराग अनन्त दानी कहा जाता है ।
अपने प्रति उदारता का व्यवहार सभी को अच्छा लगता है । उदार व्यक्ति में सब के प्रति मैत्री प्रमोदभाव होता है । उदार व्यक्ति वही होता है जो अपने को प्राप्त सामग्री (वस्तुएँ, सामर्थ्य, कर्म, योग्यता आदि ) दूसरे के हित के लिए प्रदान करता है । यह उदारता रूप दान का भाव जीव का स्वभाव है, इसीलिए कर्म सिद्धान्त में प्राणिमात्र में दानान्तराय कर्म का क्षयोपशम माना है । परन्तु जैसे-जैसे प्राणी का विकास होता जाता है अर्थात् दर्शनावरण कर्म का क्षयोपशम बढ़ता जाता है, उसके दर्शन गुण एवं संवदेन गुण का विकास होता जाता है। उससे उसका करुणा भाव विकसित होता है, जिससे उदारता का भाव बढ़ता जाता है तथा यशकीर्ति का अनुभाव बढ़ता जाता है। साधक जब वीतराग अवस्था में पहुँचता है तो उसे अपने लिए संसार से कुछ भी लेना शेष नहीं रहता है। अपितु उसके पास जो कुछ भी तन, मन, इन्द्रिय, ज्ञान, बुद्धि आदि होते हैं वे सब संसार के लिए होते हैं। यह उदारता उत्कृश्ट एवं की चरम सीमा है ।
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अन्तराय कर्म