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तात्पर्य यह है कि मान कषाय से उत्पन्न मद से नीच गोत्र का उपार्जन एवं बंध होता है और मान कषाय के क्षय व कमी से विनम्रता - मृदुता से उच्च गोत्र का उपार्जन होता है ।
अथवा
उच्च-नीच संस्कार गोत्रकर्म है। संयम, त्याग, स्वभाव की ओर गति होना उच्च गोत्र है तथा भोग की ओर गति होना नीच गोत्र है । पर पदार्थ के आधार पर अपना मूल्यांकन करना, गर्व करना, गौरवशाली मानना नीच गोत्र है। इससे अपने से अधिक सम्पन्न को देखकर हीन भाव पैदा होता है । हीन भाव पैदा होना नीच गोत्र है ।
वस्तु आदि के आधार पर अपना मूल्यांकन नहीं करने से समभाव की ओर गति होती है। इससे आत्म-संतुष्टि होती है। हीन भावना पैदा नहीं होती है। समभाव में रहना, सदाचरण होना उच्च गोत्र है ।
इसी तथ्य को प्रकारान्तर से तत्त्वार्थ सूत्र में उच्च गोत्र और नीच गोत्र के बंध के हेतुओं का विवेचन करते हुए कहा है
परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ।। तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य ।।
-तत्त्वार्थसूत्र 6.24-25 परनिंदा, आत्मप्रशंसा, दूसरों के सद्गुणों का आच्छादन, असद्गुणों का प्रकाशन- ये नीच गोत्र के बंध के हेतु हैं । इसके विपरीत परप्रशंसा, आत्मनिंदा, दूसरों के सद्गुणों का प्रकाशन एवं दुर्गुणों का आच्छादन तथा नम्रवृत्ति या निरभिमानता - ये उच्च गोत्र के बंध के हेतु हैं ।
इस सूत्र के अनुसार मद करने से नीचगोत्र कर्म बंधता है । 'मद' है अच्छाई एवं गुण का अभिमान । जिसे अपने गुण दिखाई देते हैं उसे अपने अवगुण या दोष नहीं दिखाई देते। उसे अन्य कोई उसके दोष दिखाये तो वह उसे शत्रु समान लगता है। वह अपने को दोषी मानना ही नहीं चाहता । (1) वह अपने दोष देखना ही नहीं चाहता । अतः उसे दोष दिखते ही नहीं (2) यदि अन्य कोई उसे उसके दोष बतावे तो वह उसे स्वीकार करना ही नहीं चाहता । ( 3 ) यदि उसे अपने दोष स्वीकार करने पड़ें, तो वह उन दोषों को ढकना या छिपाना चाहता है । (4) उन दोषों को गुणों का परिधान पहनाकर गुण रूप में प्रकट करना चाहता है । ( 5 ) जो गुण अभी नहीं हैं
गोत्र कर्म
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