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जीवन मानने लगता है । इसीलिए आगम में मान या मद को नीच गोत्र का कारण बताया है, जो उपयुक्त ही है। जो व्यक्ति अपना मूल्यांकन विनाशी वस्तुओं की उपलब्धि के आधार पर नहीं करता है, वह दीनता - हीनता से बचा रहता है और वही व्यक्ति उच्च गोत्रीय है।
भूमि, भवन आदि विनाशी वस्तु का मूल्य भोगी जीव की दृष्टि में होता है । अतः भोगी जीव ही इन के आधार पर अपना मूल्यांकन करता है । प्रकारान्तर से यह कहा जा सकता है कि भोग में निमग्न जीव नीच गोत्रीय और भोग से ऊपर उठने की अर्थात् साधुत्व की योग्यता वाले जीव उच्च गोत्रीय हैं।
मद - त्याग से उच्च गोत्र
मद (अहंकार-अहंभाव ) मान कषाय का द्योतक है और मृदुता मान कषाय के क्षीणता की द्योतक है। मद का मर्दन होना, मृदुता का प्रादुर्भाव होना है। मृदुता में माधुर्य भाव, हृदय की कोमलता व प्रेम होता है । उसे सब जीव प्यारे लगते हैं । वह भी सबको प्रिय लगता है । जो प्रिय लगता है वह श्रेष्ठ जातिमान, कुलवान, बलवान व रूपवान भी लगता है। अतः मृदुता सम्पन्न व्यक्ति सभी को श्रेष्ठ जाति - सम्पन्न, श्रेष्ठ कुल - सम्पन्न, बलवान एवं रूपवान (सुन्दर) लगता है । इस प्रकार निरहंकारता या मृदुता गुण से जाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ एवं ऐश्वर्य की विशिष्ट उपलब्धि होती है। सामान्य और विशिष्ट उपलब्धियों में महान् अन्तर है। व्यक्ति के शरीर और संसार से सम्बन्धित लौकिक उपलब्धि सामान्य होती है, कारण कि यह नश्वर होती है, जड़ता व अभाव युक्त होने से अपूर्ण होती है। जबकि व्यक्तित्व से सम्बन्धित उपलब्धि विशिष्ट - अलौकिक होती है। इसमें नश्वरता, जड़ता, अभाव आदि दोष नहीं होते, यह व्यक्ति के स्वभाव व गुण से सम्बन्धित होती है। अतः यह विशिष्ट होती है। मान या मद के त्याग से अर्थात् मृदुता गुण से जाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ और ऐश्वर्य ये विशिष्ट अलौकिक उपलब्धियाँ प्रकट होती हैं । गोत्र कर्म और स्वाधीनता - पराधीनता
जैनदर्शन में मद या अहंभाव को नीच गोत्र का और निरभिमानता, निरहंकारता को उच्च गोत्र का हेतु कहा है। जीव में अहंभाव की उत्पत्ति पर-पदार्थ से तद्रूप होने से होती है। जैसे धन से तद्रूप होने से मैं
गोत्र कर्म
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