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अमानवता का मूल है प्राप्त वस्तुओं की ममता एवं अप्राप्त वस्तुओं की संचय प्रवृत्ति । प्राप्त वस्तुओं की ममता को परिग्रह और अप्राप्त वस्तुओं की संचय प्रवृत्ति को आरम्भ कहा जाता है। यह आरम्भ-परिग्रह अमानवता को जन्म देता है। इसीलिये तत्त्ववेत्ताओं ने आरम्भ-परिग्रह की अल्पता (कमी) को मृदुता या मानवता की प्राप्ति का कारण कहा है।
जैसे मृदु नवनीत आग की ताप से पिघलता है, द्रवित होता है वैसे मृदु हृदय दूसरों के दुःख के ताप से पिघलता है, द्रवित होता है, करुणित होता है। हृदय की मृदुता, कोमलता, सरलता तथा करुणाभाव ही मानवता है। जिसमें मानवता है उसमें सहानुभूति एवं सेवाभाव सहज ही प्रस्फुटित होते हैं।
सहानुभूति से दूसरों के दुःख दूर करने व प्रसन्नता देने के भाव की जागृति होती है। इससे आत्मीयभाव की वृद्धि होती है। आत्मीय भाव की वृद्धि आत्मा के विकास की वैसे ही द्योतक है जैसे चाँदनी की वृद्धि चाँद के विकास की द्योतक है। आत्मीय भाव का ही सक्रिय रूप सेवा है। दूसरों की सेवा के लिए अपना स्वार्थ छोड़ना पड़ता है। स्वार्थ भाव घटने से राग-द्वेष भाव निर्बल होते हैं, गलते हैं। राग-द्वेष भाव के गलने से मोह घटता है, जिससे यथार्थ बोध होता है। यथार्थ बोध से प्राणी को विकार से मुक्त होने की प्रेरणा जगती है जिससे मानव राग-द्वेष रहित हो वीतरागता व निर्विकारता को प्राप्त होता है। निर्विकारता से अमरता, स्वाधीनता (मुक्ति), संपन्नता (अभाव का अभाव) अक्षय प्रसन्नता, सर्वज्ञता, चिन्मयता आदि दिव्य गुणों की उपलब्धि होती है, जो मानव जीवन की मांग है। इन्हीं की प्राप्ति में मानव जीवन की सफलता है।
जहाँ सहानुभूति एवं सेवाभाव नहीं है, कठोरता व स्वार्थ भाव है, वहाँ मानवता नहीं, मानव जीवन नहीं, पाशविक जीवन या दानव-जीवन है। जिसका परिणाम है- अभाव-जड़ता, मूढ़ता, अज्ञानता, स्वार्थपरता, संघर्ष
और दुःख है। ऐसा व्यक्ति देह भले ही मानव की धारण किए हो, परन्तु हृदय या वृत्तियों से तो वह पशु ही है।
__ जिस मनुष्य का सहानुभूति का क्षेत्र जितना संकीर्ण है, वह सुख, शान्ति और सत्य से उतना ही दूर है। जिस सीमा पर उसकी सहानुभूति समाप्त होती है, वहीं से अज्ञान की अंधेरी रात्रि, कामना जनित उद्वेग की
आयु कर्म
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