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वस्तुतः दीन वह है जो अभावग्रस्त है। अभाव का सम्बन्ध भोगेच्छा से है, वस्तु से नहीं। जैसे जैन श्रावक के घर में शराब नहीं होने पर भी उसके शराब का अभाव हो सो बात नहीं है। कारण कि उसे शराब की आवश्यकता ही नहीं है। फलितार्थ यह है कि जहाँ भोगेच्छा है, वहाँ अभाव है, दुःख है, पराधीनता है, विवशता है, दासता है, दीनता है। जो दीन है वह सम्पन्न नहीं, जो दास है वह ईश नहीं। इसके विपरीत जो संयमी है वह सम्पन्न है, ईश है, ऐश्वर्यवान है, दिव्य है, देव है। तात्पर्य यह है कि संयमी व्यक्ति ही दिव्यसुख, देवत्व, देवभव पाने का पात्र होता है, असंयमी नहीं।
सारांश यह है कि जो संयम पालन करते हैं अर्थात् अप्राप्त वस्तुओं की कामना नहीं करते हैं और प्राप्त वस्तुओं को अपनी आवश्यकता से अधिक पाते हैं वे वैभवशाली हैं, वे देव हैं। इसी अर्थ में वीतराग देव वस्त्र, पात्र आदि वस्तुओं के बिल्कुल नहीं होने पर भी, बिल्कुल भोग-उपभोग नहीं करने पर भी अनन्त वैभवशाली एवं भाग्यशाली कहे गये हैं। उनके लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय कर्म का आत्यन्तिक विनाश होने से अनन्त लाभ, अनन्त भोग व अनन्त उपभोग कहा गया है।
संयमी व्यक्ति वस्तुओं की प्राप्ति के लिये हाय-हाय नहीं करता है। वस्तुओं के न होने पर भी उसे दुःख नहीं होता है। वह वस्तु के अधीन या दास नहीं है, वह स्वामी है। वस्तुएँ उसके पीछे दौड़ती हैं। वह वस्तुओं के पीछे नहीं दौडता है।
संयमी व्यक्ति की इच्छा अल्प होती है और क्रियात्मक शक्ति भरपूर होती है। वह वस्तुओं का उपार्जन एवं निर्माण तो करता है, परन्तु उसे अपने उपभोग या उपयोग के लिये तो कम इच्छाओं के कारण बहुत कम ही वस्तुएँ चाहिये। अतः उसके पास सदैव आवश्यकता से अधिक वस्तुएँ रहती हैं। इसलिये वह सच्चे अर्थों में संपत्तिवान होता है। वस्तुओं का स्वामी या ईश होने से वह ऐश्वर्यवान होता है। इसी प्रकार उसे अणिमा-गरिमा आदि अन्य ऋद्धियाँ भी उपलब्ध होती हैं। गति और आयु
नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव ये चारों गतियाँ भी हैं और आयु भी हैं। परन्तु गति और आयु में बहुत अन्तर है। कारण की गति का सम्बन्ध जीव
आयु कर्म
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