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अर्थ- उदार प्रवृत्ति, और अयशकीर्ति का अर्थ कृपण प्रवृत्ति लेना अधिक उपयुक्त लगता है।
अथवा सामान्य केवली, मूक केवली, असोच्चा केवली, तीर्थंकर केवली के सभी पुण्य प्रकृतियों का जिनमें आदेय, यशकीर्ति, आदि प्रकृतियों का नियम से उत्कृष्ट अनुभाग होता है। इनके इन प्रकृतियों के अनुभाग में कोई अंतर नहीं होता है। ऐसी स्थिति में यदि यशकीर्ति का अर्थ दूसरों के द्वारा प्रशंसा करना माना जाये तथा आदेय का अर्थ दूसरों के द्वारा आदर करना माना जाये तो यह अर्थ उपयुक्त नहीं हो सकता है। क्योंकि इन के इन सब प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग का उदय निरन्तर रहता है, परन्तु निरन्तर इनकी कोई प्रशंसा नहीं करता है। निर्वाण के बाद भी इनकी प्रशंसा वैसे ही होती रहती है जैसे पहले होती थी, तो क्या अब भी उनके यशकीर्ति कर्म का उदय है? उनके विद्यमान रहते भी कोई यशगान करता है तो कोई निंदा-बुराई एवं अपयशकीर्ति भी करता था। जबकि यह नियम है कि यशकीर्ति और अयशकीर्ति का तथा आदेय और अनादेय का उदय एक साथ कभी नहीं होता है।
यदि संसार के व्यक्तियों के द्वारा प्रशंसा करने को यशकीर्ति एवं आदर देने को आदेय माना जाय तो सांसारिक व्यक्ति तो जिसके पास जितनी भोग की सामग्री अर्थात परिग्रह अधिक है, जिसे जितने अधिक भोग प्राप्त हैं जो जितना बड़ा भोगी है उसकी उतनी ही अधिक प्रशंसा या यशोगान करते हैं, उसे उतना ही अधिक आदर देते हैं। सारे इतिहास ग्रंथ इसके प्रमाण हैं। इतिहास में उन्हीं राजा-महाराजाओं, सम्राटों, बादशाहों की महिमा है, यशोगान है, जिन्होंने युद्ध के रूप में अपने क्रूरतापूर्ण आततायी कार्यों से आक्रमण कर लाखों निरपराध लोगों की हत्या की, उनको लूटा, गुलाम बनाकर गाजर-मूली की तरह बेचा। ऐसे घोर हत्यारों. लुटेरों, डाकुओं, अत्यन्त क्रूर, राक्षसी, जघन्य पाप वृत्ति वालों की महिमा एवं यशोगान से इतिहास भरा पड़ा है और जो इन जघन्य-नीच, अधम, पाप कार्यों में असफल हो गया उसे अयोग्य व हीन माना गया है, उनका अनादर किया गया है। सफल पापी का आदर करना, यशोगान करना आज तक सांसारिक लोगों का कार्य रहा है। मिथ्यात्वी लोगों का कार्य
नाम कर्म
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