Book Title: Bandhtattva
Author(s): Kanhiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 265
________________ है। जैन कर्मविज्ञान ज्ञातिकृत (कौम या वर्णकृत या आजीविकाकृत) उच्च नीच भेद को नहीं मानता। ये भेद गुणकृत या आचरणकृत माने जाते हैं। जो अच्छे आचार-विचार एवं संस्कार वाले कुल या वंश की परम्परा में जन्म लेते हैं, शिष्टआचार-विचारको धर्मयुक्त सुसंस्कृति का स्वीकार करके चलते हैं, ऐसे मनुष्यों की संगति को जीवन का उच्चतम कर्तव्य समझते हैं और जीवन के संशोधन एवं सुसंस्करण में प्रलयक आचार-विचार का स्वीकार एवं क्रियान्वयन करते हैं, वे उच्चगोत्री कहलाते हैं और जो इसके विरुद्ध आचार वाले लेते हैं वे नीचगोत्री ले जाते हैं। नीचगोत्री अपने जीवन में अशुभ आचार-विचारसंस्कारका त्याग करके उच्च गोत्री ले सकते हैं। ऐसे व्यक्ति गल्स्थ श्रावक धर्म तथा मुनिधर्म के पालन के अधिकारी ले जाते हैं।”-कर्म विज्ञान भाग 2, पृष्ठ 348 __उच्च-नीच गोत्र कर्म के इसी तथ्य का प्रतिपादन करते हुए दिवाकर मुनि श्री चौथमल जी महाराज 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन भाष्य' में फरमाते हैं “जायकवं जल मट्ठ, निहतमलपावगं। रागदोसभयातीतं, तं वयं बूम माहणं।। - उत्तराध्ययन सूत्र, 25.21 अर्थात् अग्नि में तपा हुआ और कसौटी पर कसा हुआ सुवर्ण गुणयुक्त होता है, उसी प्रकार राग, द्वेष और भय से अतीत पुरुष को हम ब्राह्मण कहते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र की इस गाथा में तथा इसके आगे की गाथाओं में सूत्रकार ने ब्राह्मण का सच्चा स्वरूप दर्शाया है। "भारतवर्ष में, प्राचीन काल से एक ऐसा वर्ग चला आया है जो अपनी सत्ता, अन्य वर्गो पर स्थापित करने के लिए तथा स्थापित की हुई सत्ता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए अखण्ड- एक जातीय मानव-समाज को अनेक खण्डों में विभक्त करता रहा है। गुण और कर्म के आधार पर समाज की सुव्यवस्था का ध्यान रखते हुए विभाग किया जाना उचित है, जिसमें व्यक्ति के विकास को भी अधिक से अधिक अवकाश हो, परन्तु जन्म के आधार पर किसी प्रकार का विभाग करना सर्वथा अनुचित है। इस अनौचित्य का परिहार करने का ही यहाँ प्रयत्न किया गया है। एक व्यक्ति 186 गोत्र कर्म

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