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सरलता, सज्जनता, सहृदयता आदि सद्गुणयुक्त सद्प्रवृत्ति से है और नीच आचरण से आशय अशिष्टता, निर्दयता, क्रूरता, हिंसा आदि दुर्गुणयुक्त दुर्व्यवहार से है। अतः गोत्रकर्म का सम्बन्ध आचरण से है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है
ण वि मुडिएण समणो, ण ओंकारेण बंभणो। ण मुणी ण्णवाओणं, कुसचीरेण ण तावयो।। समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो। णाणेण य मुणी ठोइ, तवेण ठोई तावो।। कम्मुणा बंभणो ठोइ, कम्मुणा ठोइ बत्तिओ। वहस्सो कम्मुणा होई, मुद्दो प्वइ कम्मुणा।।
-उत्तराध्ययन 25.31-33 अर्थात मस्तक मुंडाने से कोई श्रमण नहीं होता है, ओंकार का उच्चारण करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता है, वन में निवास करने से कोई मुनि नहीं हो जाता है, एवं कुश से बने चीवर (वस्त्र) के धारण करने से कोई तापस नहीं हो जाता है। 131 ||
अपितु समता भाव धारण करने से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य का पालन करने से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता है और तप करने से तपस्वी होता है।।32||
तथा कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से शूद्र होता है, किसी वंश में जन्म लेने मात्र से नहीं ।।33 ||
आशय यह है कि गुणों से एवं सदाचरण से ही व्यक्ति जातिवान्, कुलवान्, बलवान्, रूपवान् एवं ऐश्वर्य संपन्न होता है। बाह्य वेशभूषा एवं पदार्थों की प्राप्ति से नहीं होता है। उच्च आचरण वाला उच्च गोत्रीय और अधम आचरण वाला नीच गोत्रीय होता है। गोत्रकर्म जातिगत नहीं
श्रमणसंघ के आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि जी ने उच्च आचरण वाले को उच्च गोत्रीय और अधम आचरण करने वाले को नीच गोत्रीय कहा है, यथा- "सदाचारियों या कदाचारियों की परम्परा में जन्म लेने, वैसा वातावरण मिलने अथवा स्वीकार करने का कारणभूत कर्म गोत्र कर्म
गोत्र कर्म
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