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दुःशील, अज्ञान और प्रकृति से तमोगुणी होने पर भी अमुक वर्ण वाले के घर जन्म लेने के कारण समाज में पूज्य, आदरणीय, प्रतिष्ठित और ऊँचा समझा जाय और दूसरा व्यक्ति सुशील, ज्ञानी और सत्त्वगुणी होने पर भी केवल अमुक कुल में जन्म ग्रहण करने के कारण नीच और तिरस्करणीय माना जाय, यह व्यवस्था समाज-घातक है। इतना ही नहीं, ऐसा मानने से न केवल समाज के एक बहुसंख्यक भाग का अपमान होता है, प्रत्युत यह सदगुण और सदाचार का भी घोर अपमान है। इस दोषपूर्ण व्यवस्था को अंगीकार करने से 'दुराचार' सदाचार से ऊँचा उठ जाता है, 'अज्ञान' ज्ञान पर विजय प्राप्त करता है और 'तमोगुण' सत्त्वगुण के सामने आदरास्पद बन बैठता है। यह ऐसी स्थिति है, जो गुण-ग्राहक विवेकीजनों को सह्य नहीं हो सकती।
अतएव वर्ण-विभाग का आधार जन्म न होकर गुण और कर्म ही हो सकता है। गुणों के कारण ही कोई व्यक्ति आदरणीय या प्रतिष्ठित होना चाहिए या अनादरणीय और अप्रतिष्ठित माना जाना चाहिए। इसमें भी एक बात और ध्यान देने योग्य है। वर्ण विभाग वंश-परम्परागत कर्म के अनुसार हो तो समाज का अधिक विकास हो सकता है और उस वर्ण वाले में प्रतिष्ठा- अप्रतिष्ठा, आदरणीयता-अनादरणीयता आदि का भेद गुण पर अवलम्बित होना चाहिये।" -निर्ग्रन्थ प्रवचन भाष्य, पृष्ठ 289
सारांश यह है कि पिता भूप है, जैन धर्मानुयायी है और माता का वंश, ननिहाल पक्ष वाले भी धर्मानुयायी –सद्प्रवृत्तियों के करने वाले हैं, उच्च जाति, कुल के हैं वे उच्च गोत्री हैं, उनके पुत्र शराबी, जुआरी, वेश्यागमन करने वाले, अभक्ष्य सेवन करने वाले, व्यसनी हो गये तो वे नीच गोत्री माने जायेंगे। एक ही कुल (वंश) में पैदा होकर आचरण से पिता उच्च गोत्री व पुत्र नीच गोत्र वाला कहलाएगा। इसलिये गोत्र कर्म के सम्बन्ध में बाह्य जाति, कुल, रंग, रूप, धन, प्रतिष्ठा का कोई महत्त्व नहीं है, आचरण से गोत्र का सम्बन्ध है।
'गोत्र' का अर्थ वर्तमान में प्रायः जाति से ही लगाया जाता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य जाति में जन्म लेने वाले को उच्च गोत्रकर्म का उदय तथा भंगी, चमार, रैगर आदि शूद्र जातियों में जन्म लेने वाले को नीच-गोत्र का उदय मानते हैं, परन्तु दिगम्बराचार्य श्री वीरसेन ने गोत्रकर्म
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गोत्र कर्म