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सत्य के विपरीत होता है। उन्हें भोगी या पापी और भोग व पाप ही प्रशंसनीय लगते हैं, आदरणीय लगते हैं। उनके द्वारा की गई प्रशंसा, महिमा, आदर-सत्कार-कार्य सचमुच वास्तविक प्रशंसा एवं आदर नहीं है।
कर्मसिद्धान्तानुसार व्रती श्रावकों, समस्त साधुओं एवं तीर्थंकरों के दुर्भग नाम, अनादेय नाम और अयशकीर्ति का उदय कदापि नहीं होता है। जबकि दूसरों के द्वारा इनका अपमान, अनादर, तिरस्कार, निंदा, अपयश करते प्रत्यक्ष देखा जाता है। उत्तराध्ययन के 12वें अध्ययन में हरिकेशी मुनि का घोर अपमान, अनादर, अपयश, निंदा, तिरस्कार किया गया है। अन्य तीर्थयों के द्वारा भगवान महावीर का अनादर, तिरस्कार किया गया है, निंदा की गई है। अतः आम लोगों की प्रशंसा-अप्रशंसा से, यशकीर्तिअपयशकीर्ति से एवं आदर-अनादर से आदेय-अनादेय से इस कर्म की प्रकृतियों के बंध व उदय का कोई सम्बन्ध नहीं है।
आशय यह है कि सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय, यशकीर्ति- अयशकीर्ति ये सब प्रकृतियाँ जीव विपाकी हैं। अतः ये जीव के स्वयं के भावों से तथा जीव की शुभ-अशुभ प्रवृत्ति से संबंधित हैं। जीव के कामना, ममता, विषय, कषाय आदि दोषों में वृद्धि से, दुराचरण से होने वाली अप्रसन्नता, खिन्नता, दुर्भगनाम कर्म, अकर्तव्य में वृद्धि होना, हेय कार्य करना, अनादेय है। स्वार्थपरता में वृद्धि होना, अनुदारता, संकीर्णता, अयशकीर्ति नाम कर्म है। सदाचरण-सदाचार से होने वाली प्रसन्नता या प्रमोद, सुभग नाम कर्म है। कर्तव्य परायणता, उपादेयता, आदेयनामकर्म और उदारता में आत्मीयता यशकीर्ति नाम कर्म है। ऐसा माना जाना अधिक उचित लगता है।
अथवा सभी जीवों को सौभाग्य, आदर और यशकीर्ति पसंद है। सौभाग्य की प्राप्ति का अर्थ है उत्तम भोगों की प्राप्ति। विषय-सुखों के भोग उत्तम नहीं हो सकते। क्योंकि ये राग-द्वेष आदि विकारों से युक्त होने से आकुलतामय होते हैं। पर पदार्थों पर आश्रित होने से पराधीनता युक्त होते हैं। क्षणिक होने से नश्वर हैं। बहिर्मुख करने वाले होने से जड़ता (मूर्छा) युक्त होते हैं। अतः जो सुख आकुलता, पराधीनता, नश्वरता, जड़ता आदि दुःखों से युक्त है उस सुख का भोग निकृष्ट भोग है। वह दुर्भग है, सुभग (सौभाग्य) नहीं है। इसके विपरीत कामना, ममता, अहंकार आदि दोषों के घटने से,
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नाम कर्म