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इसी प्रकार शरीर के अंगोपांग व अवयवों का चलायमान होना, जैसे अंडकोश का उतर जाना, वात्त, पित्त, कफ का कुपित हो जाना, शरीर की अस्वस्थता का द्योतक है। इसे ही अस्थिर नामकर्म कहा जा सकता है। शुभ-अशुभ नामकर्म
वर्तमान में शुभ नामकर्म के उदय से नाभि के ऊपर के अवयव प्रशस्त होना माना जाता है और नाभि के नीचे के अवयव अप्रशस्त होने से उनको अशुभ माना जाता है, परन्तु ऐसा माना जाय तो बाधा यह आती है कि शुभ और अशुभ इन दोनों नामकर्म का उदय अन्तराल गति में भी होता है। वहाँ औदारिक शरीर नहीं होने से नाभि है ही नहीं। द्वितीय, संसार के समस्त जीवों के किसी भी शरीर के उदय रहते हुए इन दोनों का युगपत् ध्रुव उदय है। अतः संसार के सभी जीवों के सदैव नाभि से ऊपर के अवयव प्रशस्त
और नीचे के अवयव अप्रशस्त मानने होंगे। फिर समचतुरस्र संस्थान जिसमें सभी अंग, नाभि के नीचे के अंग भी प्रशस्त होते हैं तब अशुभ कर्म के उदय के अभाव का प्रसंग उत्पन्न हो जायेगा। जो कि कर्म सिद्धान्त के अनुसार उचित प्रतीत नहीं होता है। अतः शरीर में इष्ट (हितकारी), स्वास्थ्यप्रद पुद्गलों का होना शुभ नाम कर्म का और अनिष्ट (अहितकारी) अस्वास्थकारी पुद्गलों का होना अर्थात् विकार युक्त या रोगग्रस्त होना अशुभ नामकर्म का उदय मानना उचित लगता है। सुस्वर-दुःस्वर
प्रचलित अर्थ के अनुसार जिसके उदय से जीव का स्वर श्रोता में प्रीति उत्पन्न करे वह सुस्वर और जो स्वर श्रोता में अप्रीति उत्पन्न करे वह दुःस्वर माना जाता है। परन्तु ऐसा मानने पर प्रश्न उत्पन्न होता है कि एक ही व्यक्ति का, एक ही पक्षी का या एक ही पशु का स्वर कितने ही श्रोताओं को प्रिय लगता है और कितने ही श्रोताओं को अप्रिय लगता है तथा वीतराग केवली की वाणी भव्य जीवों को प्रिय और अभव्य व विरोधी जीवों को अप्रिय लगती है। इस प्रकार श्रोताओं को प्रीतिकर- अप्रीतिकर लगने के आधार पर सुस्वर और दुःस्वर माना जाय तो एकही स्वर को सुस्वर और दुःस्वर दोनों मानना होगा जो कर्म सिद्धान्त के विपरीत है, क्योंकि वहाँ किसी जीव के दोनों स्वरों का उदय युगपत् होना नहीं माना है। अपितु दोनों स्वरों में से किसी एक स्वर का ही उदय माना है। जब दुःस्वर का
नाम कर्म
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