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उस रोग से ग्रस्त हो जाता है। कर्म-सिद्धान्त की भाषा में यह कहा जा सकता है कि सबल पराघात प्रकृति वाला व्यक्ति संक्रामक रोगों से बच जाता है और निर्बल पराघात प्रकृति वाला व्यक्ति संक्रामक रोग से आक्रांत हो जाता है। श्वासोच्छवास नामकर्म
नामकर्म की प्रकृतियों में 'श्वासोच्छ्वास नाम कर्म' प्रकृति जीव विपाकी प्रकृति है। कारण कि इस क्रिया का सम्बन्ध जीव के भाव से है, न कि पुद्गलों से। श्वास छोड़ने में जो वायु बाहर निकलती है वह विकृत होती है और उसका विकृत होना उपघात प्रकृति का कार्य है और श्वास में ग्रहण की गई वायु से आक्सीजन ग्रहण करना, उसका उपयोग करना, उसे यथास्थान पहुँचाना, उससे नव-निर्माण करना, शरीर को पुष्ट करना आदि शरीर, बंधन, संघातन व निर्माण आदि नामकर्म की पुदगल विपाकी प्रकृतियों के कार्य हैं। इस प्रकार वायु के रूप में ऑक्सीजन आदि पुद्गलों का आना व कार्बन-डाई-ऑक्साइड पुद्गलों का वायु के रूप में निकलना ये दोनों बातें पुद्गलों से अर्थात् पुद्गल विपाकी प्रकृतियों से संबंधित हैं, परन्तु श्वास को निकालने व छोड़ने की प्रक्रिया किन्ही पुदगलों द्वारा नहीं होती है प्रत्युत स्वयं जीव के द्वारा होती है। इसी कारण श्वसन की यह प्रक्रिया जीवन की द्योतक है। इसीलिए प्रक्रिया या प्रवृत्ति के बंद होते ही जीवन का भी अंत हो जाता है।
श्वासोच्छवास के जीव विपाकी होने का सबसे प्रबल प्रमाण यह है कि श्वास की गति के तीव्र-मंद होने का सम्बन्ध जीव के भावों के साथ है। जब जीव में राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि विकार तीव्र होते हैं तो श्वास की गति तीव्र हो जाती है। राग की तीव्रता से ही संभोग के समय श्वास की गति तीव्र हो जाती है। इस प्रकार विषय-कषाय रूप विकारों का सम्बन् | श्वासोच्छवास के साथ है। जब चित्त शान्त व एकाग्र होता है तो स्वतः श्वास की गति धीमी हो जाती है एवं कुम्भक होने लगता है। श्वास का सम्बन्ध भावों के साथ होने से ही इसे जीव विपाकी प्रकृति कहा गया है। तीर्थकर प्रकृति
जिस कर्म के उदय से जीव धर्म तीर्थ की स्थापना करे उसे तीर्थकर नामकर्म कहते हैं। इसका उदय कैवल्य दशा में ही होता है।
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नाम कर्म