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सुख से विशेष प्रकार का होता है। कारण कि भोगों से मिलने वाला 'विषय - सुख' प्रथम तो क्षणिक होता है। दूसरा, इस सुख का अन्त नीरसता में होता है। तीसरा यह सुख वस्तुओं के अधीन होने से पराधीन बनाता है। चौथा, इस सुख के भोग के समय इन्द्रियों में उत्तेजना होती है जो चित्त को आकुल बनाती है एवं तनाव पैदा करती है । पाँचवाँ इस सुख से कभी तृप्ति नहीं होती है। छठा, इस सुख के भोगी को दुःख भोगना ही पड़ता है। सातवाँ, इससे शक्ति क्षीण होती है आदि । विषय सुख में अनेक कमियां हैं, परन्तु समता भाव व संयम से प्राप्त सुख में ये कमियां तो होती ही नहीं, साथ ही अनेक प्रकार की विशेषताएँ भी होती हैं यथा 1. यह सुख स्थायी होता है। 2. इससे चित्त में सदा सरसता बनी रहती है। 3. यह सुख वस्तुओं व परिस्थितियों के आधीन नहीं होने से स्वाधीन है। 4. यह तनाव रहित होने से निराकुल होता है। 5. सदा तृप्ति देने वाला होता है। 6. इस सुख के परिणाम से दुःख नहीं मिलता है। 7. इससे शक्ति का संचय होता है । अतः यह दिव्य सुख है । जो इस दिव्य सुख का अनुभव करता है, वही देव है। इस प्रकार भोगग्रस्त प्राणी को मिलने वाला इन्द्रिय सुख, संयम, समता, तप व सहिष्णुता से मिलने वाले सुख के समक्ष कुछ भी नहीं है । यहाँ यह भी स्मरणीय है कि संयम या इन्द्रिय-नियन्त्रण ज्ञानपूर्वक किया जाय या अज्ञानपूर्वक (बालतप) किया जाय, उसका फल देवत्व रूप में मिलता है। कारण कि कामना का त्याग कोई ज्ञानपूर्वक करे अथवा अनजाने करे, शान्ति मिलती ही है। जो जितना त्याग करता है, संयम पालन करता है, वह उतना ही अभाव के दुःख से छुटकारा पाता है, उसका चित्त समता व शान्ति जनित प्रसन्नता से भर जाता है। ऐसी प्रसन्नता कामी, असंयमी, भोगी जीव को कभी नहीं मिल सकती।
देना ही जिसका जीवन है वह देव है, जो देता है वह देवता है । उसके प्रति जन-मानस के मुंह से अनायास ही ये शब्द निकलने लगते हैं कि वह मनुष्य, मनुष्य नहीं देवता है । हृदय की कोमलता या देने का भाव देवता का सामान्य लक्षण है । देवता या दिव्यता का विशेष लक्षण हैइन्द्रिय संयम, इन्द्रिय नियमन । जो जितना अधिक इन्द्रिय नियमन करता है वह उतना ही ऊँचे स्तर का देव होता है । भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और पहले-दूसरे स्वर्ग के देवियों के शरीर से काम-सुख का भोग
देव
आयु कर्म
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