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के भावों से है और आयु का सम्बन्ध जीवन-शक्ति (Living Power) से है। जीव के भावों में उतार-चढ़ाव आने के साथ गति में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। भावों के परिवर्तन के साथ गति बंध में परिवर्तन होना सहज है। उदाहरणार्थ प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को लें, वे ध्यान में खड़े थे। उधर से कुछ पदयात्री निकल रहे थे। उनके मुख से निकले शब्द मुनि के कान में पड़े कि यह राजा भी कैसा है जो अपने असमर्थ राजकुमार पर राज्य का भार छोड़कर साधु हो गया। इसके साधु होते ही अन्य राजा ने इसके राज्य पर चढ़ाई कर दी और युद्ध प्रारम्भ हो गया। अब बेचारे राजकुमार का युद्ध में क्या होगा, यह कहना कठिन है। यह वचन सुनते ही प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को आक्रोश आया और उसके मन में आक्रान्ता राजा को पराजित करने के लिए भयंकर युद्ध के विचार उठे। उसके मन में क्रोध, रोष, द्वेष, संघर्ष की आग भभक उठी, जिससे उसके सातवें नरक की गति का बंध होने लगा। परन्तु युद्ध करने के लिए जैसे ही उसका हाथ ऊपर उठा और सिर पर गया तो उसको विचार आया कि मैं साधु हो गया हूँ, जिससे उसका विवेक जगा और वैराग्य बढ़ने लगा। वैसे ही उसकी गति का बंध प्रतिक्षण बदलता गया, नरक गति का बंध घटता गया, फिर वह बदलकर देव गति का बंध होने लगा और कुछ ही मिनटों में वह बंध भी रुककर केवलज्ञान हो गया। इस प्रकार उस राजा के गति का बंध तो हुआ, परन्तु आयु का बंध नहीं हुआ। गति का बंध भी संक्रमित हो गया। यदि किसी आयु का बंध हो जाता तो उसे केवलज्ञान नहीं होता और उसे अगला जन्म लेना ही पड़ता।
यह नियम है कि किसी प्राणी की कोई प्रकृति (आदत) इतनी प्रगाढ़ व दृढ़ हो जाती है कि वह जीवन ही बन जाती है और आयु का रूप पारण कर लेती है। वही आयु बंध का कारण बनती है, परन्तु जब तक जो विचार वृत्ति- प्रवृत्ति किसी आवेश या परिवेश के कारण उत्पन्न होती है वह अल्पकालिक, अस्थिर व अस्थायी होती है तब तक उसी के अनुरूप गतिबंध होता रहता है। जैसे-जैसे परिणामों में परिवर्तन होता जाता है वैसे-वैसे गतिबंध में परिवर्तन होता जाता है। जो प्रवृत्ति दृढ़ प्रकृति का रूप धारण कर लेती है वही आयुबंध का रूप लेती है।
पहले कह आये हैं कि आयु का सम्बन्ध जीवनी-शक्ति से है। जीवनी-शक्ति को ही जैन दर्शन में आयुबलप्राण कहा है। जीवनी शक्ति
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आयु कर्म