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(वज्रऋषभ नाराच, ऋषभ नाराच, नाराच, अर्द्ध नाराच, कीलक और सेवात ), 6 संस्थान (समचतुरस्र, न्यग्रोध, सादि, वामन, कुब्जक और हुंडक), वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, आतप, उद्योत, उपघात, पराघात, अगुरु-लघु, निर्माण, शुभ-अशुभ, स्थिर–अस्थिर, प्रत्येक, साधारण ये 36 पुद्गल विपाकी प्रकृतियाँ शरीर से संबंधित हैं।
चित्रकार द्वारा कोई चित्र बना देने के पश्चात् उसके भाव बदल जाते हैं। पहले का भाव नष्ट हो जाता है, नया भाव आ जाता है, परन्तु चित्र नष्ट नहीं होता है कुछ काल तक रहता है। इसी प्रकार घातिकर्म बदल जाते हैं, परन्तु उनके निमित्त से उत्पन्न हुए अघाती कर्म तत्काल नष्ट नहीं होते हैं, बने रहते हैं। उन पर प्राणी का वश नहीं चलता है, उनका प्रकृति के विधान से सर्जन होता है। ये प्रकृति की देन हैं। प्रकृति के विधान में किसी का अहित नहीं है। अतः ये कर्म अघाती हैं।
घाती कर्म यानी दूषित कर्म प्राणी की स्वयं की उपज या देन हैं। घाती कर्म करने या न करने में एवं उनका क्षय करने में प्राणी स्वाधीन है, परन्तु अघाती कर्मों का क्षय करने में स्वाधीन नहीं है। जैसे भोजन करने, न करने में, अच्छा, बुरा भोजन करने में प्राणी स्वाधीन है, परन्तु भोजन के पश्चात् उसका पाचन होना, उसका शरीर पर प्रभाव प्रकट होना- यह प्रकृति का कार्य है, इसमें प्राणी स्वाधीन नहीं है। विष खाना न खाना अपने वश की बात है, परन्तु उसके प्रभाव रूप मूर्छा-बेहोशी न आने देना यह वश की बात नहीं है। शरीर का विकास होना, आयु समाप्त होना, निकृष्ट मानसिक स्थिति का होना, वश की बात नहीं है, ये स्वतः होते हैं। इसी प्रकार सात्त्विक भोजन, शरीर का पुष्ट होना, साता एवं असाता का वेदन होना, जीवनी- शक्ति का सुरक्षित रहना, शरीर-मन का प्रसन्न होना स्वतः होता है। नाम कर्म का विससाभाव (पारिणामिक भाव)
नाम कर्म दो प्रकार का है- 1. शुभ नाम कर्म और 2. अशुभ नाम कर्म। इनके अनुभाग उदय अर्थात् फल का प्रतिपादन इस प्रकार है
गोयमा? सुभणामस्य णं कम्मस्य जीवेणं बद्धस्य जाव पोग्गल-परिणामंपप्पचोद्दसविठेअणुभावेपण्णत्तेतंजल-इट्ठायदा, इट्ठा कवा इट्ठा गंधा, इट्ठा रसा, इट्ठा फाया, इट्ठा गई, इट्ठा नाम कर्म
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