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नामकर्म की विभिन्न प्रकृतियाँ
नामकर्म की 14 पिण्ड प्रकृतियाँ हैं, जिनके उत्तर भेदों में 93 या 103 प्रकृतियाँ मानी गई हैं। यहाँ पर इन प्रकृतियों के स्वरूप का विवेचन किया जा रहा है। गति नामकर्म
गति का सम्बन्ध आत्मा की आन्तरिक प्रवृत्ति रूप स्थिति से है। ज्ञानावरणीय व दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति का सदुपयोग- दुरुपयोग इसके बंध का कारण है । गति चार प्रकार की है- 1. नरक गति 2. तिर्यंच गति 3. मनुष्य गति और 4. देव गति ।
मोह की वृत्ति की अधिकता से बढ़ी हुई मूर्छा एवं जड़ता की अवस्था ही तिर्यंच गति है। जब मोह में कमी आती है- मूर्छा हटती है तो ज्ञानावरणीय व दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है। जिसके फलस्वरूप इन्द्रियों की तथा मन की प्राप्ति होती है। प्राणी अपनी भूल के कारण इन्द्रियों से विषय सेवन में प्रवृत्त होता है और विषय भोग को ही सुख मानने लगता है। फलस्वरूप सुख-प्राप्ति के लिए अगणित नई-नई कामनाएँ उत्पन्न होती हैं, परन्तु उनकी पूर्ति नहीं हो पाती है। अगणित कामनाओं की पूर्ति न होने के कारण पूर्ति हेतु वस्तुओं का संग्रह करने के लिए दूसरों का शोषण करता है। हृदयहीन होकर क्रूरतापूर्वक पीड़ा देता है, जिससे परस्पर में संघर्ष व कलह पैदा होता है। इस प्रकार वह अपनी आंतरिक दुष्प्रवृत्तियों से उत्पन्न अंतर्द्वन्द्व आदि से तथा दूसरों के संघर्ष के कारण सदा महादुःखी रहता है। ऐसी क्रूरता व विषय-कषाय की अतिगृद्धता नारकीय गति की द्योतक व जनक है।
जो जीव प्राप्त विषय-भोग में ही गृद्ध एवं मूर्च्छित रहता है और उसको जीवन मानता है, ऐसी जड़ता जैसी स्थिति तिर्यंच पशु-पक्षी की है। यही तिर्यंच गति की जनक भी है। जब जीव विषय-भोग के दुःखद परिणाम को जानकर उससे छुटने, उन पर विजय पाने के लिए प्रयत्न करता है, दूसरों के साथ उदारता, करुणा आत्मीयता, प्रेम, स्नेह व सेवा का व्यवहार करता है तो यह मानवता की स्थिति है। मानवता ही मनुष्य गति की जनक है। जो जीव दिव्य सात्त्विक प्रकृति के सुखभोग में डूबा रहता है, अपना विकास करने के लिए उद्यत नहीं होता है, प्रयत्न नहीं करता है। ऐसी स्थिति देव गति की जनक है।
नाम कर्म
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