________________
होकर जड़ (अचेतन) हो जाता, परन्तु ऐसा कभी नहीं होता है। प्राणी में ज्ञान व दर्शन की शक्ति की कुछ न कुछ अभिव्यक्ति सदैव रहती है। उसी आंतरिक ज्ञान-दर्शन की अभिव्यक्ति के लिए उसे स्पर्शनेन्द्रिय मिलती है। आंतरिक विकास की अत्यंत कमी की इस अवस्था में प्राणी केवल स्थूल पदार्थों का शरीर से स्पर्श-संसर्ग होने पर ही उनका संवेदन, अनुभव व ज्ञान कर पाता है। इस प्रकार अत्यंत अल्प विकसित प्राणी के एक ही स्पर्शनेन्द्रिय होती है । ऐसे प्राणियों को एकेन्द्रिय कहा जाता है, जैसे पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय तथा वनस्पतिकाय।
जब प्राणी में ज्ञान तथा दर्शन का आवरण कुछ अधिक घटता है तो उसकी चेतना का विकास होता है, जिससे उसके संवेदन की व पहचानने की शक्ति बढ़ती है और वह पदार्थ में रहे हुए सूक्ष्म रस तीखे, कड़वे, कषैले, मीठे, खट्टे का अनुभव करने व पहचानने लगता है। शरीर के जिस स्थान से वह संवेदन करता एवं पहचानता है उसे रसना (जिह्वा) इन्द्रिय कहते हैं। ऐसा जीव द्वीन्द्रिय कहा जाता है।
जब प्राणी में ज्ञान व दर्शन का आवरण कुछ और अधिक कम होता है तो उसकी संवेदन की व पहचानने की शक्ति और बढ़ती है। जिससे वह पदार्थ से निकलने वाली सूक्ष्म गंध के स्पर्श का संवेदन कर लेता है व पहचान लेता है। शरीर के जिस स्थान से वह संवेदन करता है उसे घ्राण(नाक) इन्द्रिय कहते हैं। ऐसा जीव त्रीन्द्रिय कहा जाता है।
जब जीव में ज्ञान व दर्शन का आवरण फिर कुछ और अधिक घटता है तो उसकी ज्ञान-दर्शन की अर्थात संवेदन की व जानने की शक्ति और बढ़ जाती है जिससे वह प्रकाश जैसे सूक्ष्म पदार्थ का संवेदन कर उससे प्रकाशित वस्तु के रंग-आकार-प्रकार को पहचान लेता है। शरीर के जिस स्थान में ऐसी शक्ति होती है उसे चक्षुइन्द्रिय कहते हैं। ऐसे जीव को चतुरिन्द्रिय कहा जाता है। जब प्राणी के ज्ञान व दर्शन का आवरण और विशेष घटता है तो उसकी संवेदन करने व जानने की शक्ति का विशेष विकास हो जाता है और वह पदार्थों के संघर्ष से उत्पन्न हुई सूक्ष्म ध्वनि की लहरों के स्पर्श का संवेदन करने लगता है तथा उस संवेदन के आधार पर उन्हें पहचानने लगता है कि यह किसकी ध्वनि है। शरीर के जिस स्थान में ऐसी शक्ति होती है उसे कर्णेन्द्रिय या श्रोत्रेन्द्रिय कहते हैं। इस श्रोत्रेन्द्रिय से युक्त जीव को पंचेन्द्रिय कहा जाता है।
162
नाम कर्म