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के चिपका रहता है तथा इसमें निरन्तर नये कर्म पुद्गल जुड़ते रहते हैं एवं पुराने निर्जरित होते रहते हैं।
इनमें से जहाँ कामना–भोगेच्छा उत्पन्न होती है, वहाँ तैजस व कार्मण शरीर की संरचना तो होती ही है, साथ ही औदारिक या वैक्रिय शरीर में से किसी एक शरीर की रचना भी होती है। जिस प्रकार की गति के अनुरूप इच्छा है उसी के अनुरूप शरीर की रचना की क्षमता उत्पन्न होती है। अंगोपांग नामकर्म
जब शरीर निर्माण करने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है तो उसके अनुरूप अंगों का निर्माण होना भी स्वाभाविक है। इसे ही अंगोपांग प्रकृति कहा गया है। अंग उसे कहा जाता है जो शरीर के निश्चित स्थान पर होता है और वह एक विशेष निश्चित क्रिया या कार्य ही करता है। इस दृष्टि से एकेन्द्रिय में अंगोपांग नहीं होता है। षट् खंडागम में यही मत मान्य किया गया है। साधारण भाषा में शरीर के एक भाग को भी अंग कहा जाता है। इस दृष्टि से आगमों में वनस्पति में भी अंगोपांग कहा गया है। औदारिक, वैक्रिय एवं आहारक शरीर के ही अंगोपांग संभव हैं, अतः अंगोपांग तीन कहे गये हैं, यथा- 1. औदारिक अंगोपांग 2. वैक्रिय अंगोपांग 3. आहारक अंगोपांग ।
शरीर बन्धन नामकर्म के 5 भेद, संघातन नाम कर्म के 5 भेद, संहनन के 6 भेद, संस्थान नाम के 6 भेद तथा वर्ण-गंध, रस, स्पर्श के 20 भेद हैं। बंधन नाम
जिस कर्म के उदय से पहले से गृहीत शरीर पुद्गलों के साथ नवीन पुद्गलों का बंध हो उसे बंधन नाम कहते हैं। औदारिक आदि पाँच शरीरों के अनुरूप इसके पाँच भेद हैं। संघातन नाम
यह ग्रहण किए हुए पुद्गलों का यथास्थान व्यवस्थित रूप से स्थापन करता है। यह भी औदारिक आदि पाँच प्रकार का है। संहनन नाम
शरीर की अस्थि रचना को संहनन नाम कहते हैं। यह 6 प्रकार का है, यथा- 1. वजऋषभ नाराच 2. ऋषभ नाराच 3. नाराच 4. अर्द्ध नाराच 5. कीलक और 6. सेवार्त।
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नाम कर्म