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करते हैं। तीसरे चौथे स्वर्ग के देव देवियों के शरीर से काम - सुख का भोग नहीं करते हैं। पांचवे - छठे स्वर्ग के देव उनके शरीर के स्पर्श सुख का भोग नहीं करते हैं। सातवें आठवें स्वर्ग के देव उनके शब्द सुख का भी नियमन कर लेते हैं । इनके ऊपर के स्तर के देव उनके चिन्तन से भी दूर रहते हैं । इस प्रकार जो जितने अधिक उच्चस्तरीय देव हैं, वे उतने ही अधिक इन्द्रिय-निग्रह करने वाले होते हैं । वहाँ उनके काम-भोग के साध ान भी अल्प से अल्पतर होते जाते हैं । यहाँ तक कि अनुत्तर विमानवासी देव न केवल इन्द्रियों के सुख-भोग का ही निग्रह करते हैं, अपितु वे विषयों के चिन्तन के सुख का भी निग्रह कर लेते हैं। ये देव विषय सुख की दासता रहित होने से अहमिन्द्र कहे जाते हैं।
अहमिन्द्र अपने चित्त के भी दास नहीं होते हैं । अतः इनमें विषय- कषाय की प्रवृत्ति अत्यल्प, नगण्य होती है। इन देवों में दूसरे देवों पर आक्रोश करने रूप क्रोध की प्रवृत्ति एवं अपने को छोटा-बड़ा समझने रूप मान की प्रवृत्ति, कथनी-करनी के भेद रूप माया की प्रवृत्ति एवं वस्तुओं के संग्रह करने रूप लोभ की प्रवृत्ति नहीं पायी जाती है । ये विषय - सुख का चिन्तन तक नहीं करते हैं। ये सदैव शुक्ल या शुभ्रभाव - शुभभाव में रहते हैं । 'जैसी गति वैसी मति सिद्धान्तानुसार इन स्वर्गों में वे ही जाते हैं जो पूर्ण संयमी होते हैं। जो अपने सर्व स्वार्थ पर सर्वथा विजय पा लेते हैं; वे सर्वार्थ सिद्ध विजय के देव होते हैं । यह स्मरणीय है कि जैनागम में नीचे-नीचे के देवों की अपेक्षा ऊपर-ऊपर के देवों में भोग व भोग सामग्री कम तथा उनमें सुख अधिकाधिक कहा गया है।
आशय यह है कि जो जितना अधिक संयमी है, वह उतना ही उच्चस्तरीय देव है, उतना ही अधिक वैभवशाली है । इस दृष्टि से विचारें तो पूर्ण संयमी वीतराग देव सर्वोच्च, सर्वोत्कृष्ट, सर्वोपरि देव हैं, महादेव हैं। पूर्ण संयमी होने से उनके पास विषयों के भोगोपभोग की किंचित् भी सामग्री नहीं है, फिर भी जैनागम में उनमें अनन्त लाभ, अनन्त भोग, अनन्त उपभोग बताया है अर्थात् अनन्त वैभवशाली व सौभाग्यशाली कहा है, जो समीचीन ही है। कारण कि उनके अभाव का अभाव है, अंतः वैभवशाली हैं । शान्ति, मुक्ति, स्वाधीनता, समता के अक्षय रस का वे सतत भोग करते रहते हैं, अतः अनन्त भोगोपभोगवान हैं।
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आयु कर्म