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फिर कुछ करना शेष नहीं रहता। करना शेष न रहने से तथा निष्काम व वीतराग होने से उसे शरीर धारण करने की आवश्यकता नहीं रहती, फिर कभी जन्म नहीं लेना पड़ता और वह रोग-शोक, अभाव-तनाव आदि समस्त दुःखों से वह सदा के लिए मुक्त हो जाता है, जो चेतन का सर्वोच्च-सर्वोत्कृष्ट एवं चरम लक्ष्य है। देवायु
भगवती सूत्र में देवायु बंध के कारणों का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है
गोयमा? असगगंजमेणं, संजमागंजमेणं बालतवोकम्मजाणं, अकामणिज्जराए, देवाउय कम्मायरीर जाव पओगबंधे।।
__ -भगवती सूत्र शतक 8, उद्दे. 9, सूत्र 106 तत्त्वार्थसूत्र में कहा हैसराग-संयम-संयमासंयमाकामनिर्जराबालतपाधि देवस्य।
-तत्त्वार्थ सूत्र अ.6, सूत्र 19 सराग संयम, देश संयम, अकाम निर्जरा और बालतप ये देव जीवन के कारण हैं, अर्थात् देवत्व की प्राप्ति के लिए संयम, तप व सहिष्णुता (समता) आवश्यक है। देव वह है जो दिव्य ऋद्धिधारी हो। ऋद्धि उसे कहा जाता है जिससे सुख मिले। दिव्य ऋद्धि वह है जो साधारण ऋद्धि से विशेष प्रकार की हो। जिससे इन्द्रिय भोगों का क्षणिक सुख मिलता है, ऐसी भूमि, भवन, धन-वैभव आदि साधारण ऋद्धि है और जिससे शान्तिजनित सुख मिलता है वह दिव्य ऋद्धि है। शान्ति मिलती है कामनाओं के त्याग से, इन्द्रियों के नियन्त्रण से, संयम से, सहिष्णुता (समता) से। इसलिए त्याग, संयम और तप (सहिष्णुता) को देवत्व प्राप्ति का कारण कहा है।
कष्टों को स्वेच्छा से समभावपूर्वक सहन करना अकाम निर्जरा और बालतप है। जो व्यक्ति आए हुए कष्टों में समभाव रखता है उसे प्रतिकूल परिस्थितियाँ अशान्त, क्षुब्ध व दुःखी नहीं कर सकती तथा संयम से इन्द्रिय पर नियन्त्रण रखने से उसके चित्त में कामना उत्पन्न नहीं होती। कामना उत्पन्न नहीं होने से चित्त अशान्त या दुःखी नहीं होता है, इस प्रकार संयमी व कष्टसहिष्णु व्यक्ति के चित्त में सदैव शान्ति बनी रहती है। चित्त की शान्ति से मिलने वाला 'आध्यात्मिक सुख', भोगों से मिलने वाले 'विषय
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आयु कर्म