Book Title: Bandhtattva
Author(s): Kanhiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 221
________________ आंधी, तनाव का तूफान- ये सब प्रारम्भ हो जाते हैं। असीम सहानुभूति राग के विकार को खा जाती है जिससे सत्य का साक्षात्कार हो जाता है। असीम सहानुभूति व करुणा में ही असीम (अनन्त) आनन्द मिलता है। सहानुभूति का आनन्द कभी क्षीण नहीं होता है। सहानुभूति का आनन्द चित्त के विकार को दूर करता है, नवीन राग को उत्पन्न नहीं होने देता है अतः पवित्र आनन्द है। स्वार्थी मनुष्य अपने सुख का दूसरों के लिए त्याग नहीं कर सकता है। अतः वह उनके साथ पावन या सच्ची सहानुभूति नहीं रख सकता। वह दूसरों के गुण-दोष या सम्पन्नता को देखकर जलता है और उन्हें हानि या कष्ट पहुंचाता है। जो निःस्वार्थ होता है वह सच्ची सहानुभूति रखता है। जो सच्ची सहानुभूति रखता है वह सम्यद्रष्टा होता है। वह दूसरों को, जैसे वे हैं वैसा ही देखता है। वह देखता है कि सभी प्राणी राग-द्वेष की आग में जल रहे हैं; दुःखी हो रहे हैं, अभाव से पीड़ित हैं। सभी पाप से ग्रसित है। जो पाप से ग्रसित हैं वे दुःख से ग्रसित है। अतः सभी को सहानुभूति की आवश्यकता है। उसके हृदय में पापी को पाप का फल-दुःख पाते देख करुणा उमड़ पड़ती है। वह पाप को बुरा मानता है, पापी को नहीं। वह पापी पर सहानुभूति की वर्षा कर उसकी पाप-कालिमा धोने का व पाप के ताप को शान्त करने का प्रयत्न करता है। जो जितना अधिक पापी है, प्राकृतिक न्याय से वह उतना ही अधिक दुःखी है। उसे सहानुभूति की भी उतनी ही अधिक आवश्यकता है। ज्ञानी पवित्रात्मा, महात्मा को सहानुभूति की आवश्यकता नहीं होती है। वे स्वयं सहानुभूति के भंडार होते हैं। उनसे तथा उन्हें असीम सहानुभूति बिना मांगे ही मिलती रहती है। कारण कि प्रकृति का यह नियम है कि जो वस्तु दी जाती है बदले में वहीं वस्तु कई गुनी होकर वापिस मिलती है। अतः जो दूसरों के साथ सहानुभूति का व्यवहार करता है उसके प्रति दूसरों के हृदय में सहानुभूति पैदा हो जाती है। साधारणतः जिसे सहानुभूति कहते हैं, वह सहानुभूति नहीं है, वह एक प्रकार का शारीरिक स्नेह है, मोह है। जो हम से स्नेह करे उससे हम भी स्नेह करें, यह साधारण प्राणी की प्रकृति है। परन्तु जो हम से घृणा करे उससे भी हम स्नेह करें, यह पवित्र सहानुभूति है, यह विवेक की देन है। ऐसी सहानुभूति उसी में होती है जिसे यह विवेक है कि जो मेरे से घृणा 142 आयु कर्म

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