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व दुःखपूर्ण चिल्लाहट से मारने वाले व मांस खाने वाले के दिल में कोई अनुकम्पा या करुणा नहीं देखी जाती है। ___अभिप्राय यह है कि भोग के कारण हृदय की जैसी स्थिति पशु-पक्षी आदि तिर्यंचों की होती है वैसी ही स्थिति अपनी ही सुख-सुविधा और इन्द्रिय-भोगों में लीन स्वार्थी मनुष्य की होती है। उसे दूसरों के दुःख का अनुभव नहीं होता है, जिससे उसके हृदय में सहानुभूति, नम्रता, मृदुता, उदारता, सरलता आदि मानवीय गुणों में कमी हो जाती है और क्रूरता, कठोरता स्वार्थपरता आदि पाशविक वृत्तियों की प्रधानता हो जाती है। आकृति से भले ही वह मनुष्य हो, पर वृत्ति, प्रवृत्ति, प्रकृति से उसका सब व्यवहार पशुओं जैसा हो जाता है।
भोग में गृद्ध रहने वाले व्यक्ति का विवेक, इन्द्रिय शक्ति, संवेदन शक्ति आदि क्षीण होने लगते हैं जिससे उसकी आन्तरिक स्थिति पशुओं से भी निम्न स्तर की हो जाती है अर्थात् वह भोगों में जितनी अधिक तीव्रता (गृद्धता) से संलग्न होता है उसकी स्थिति उतनी अधिक निम्न श्रेणी के प्राणी की बनती जाती है। कारण कि जिसकी जैसी मति या वृत्ति होती है, उसकी वैसी ही गति होती है। इसलिए स्वार्थपरता एवं भोगों में गृद्धता को अर्थात् माया को तत्त्वार्थ सूत्र में तिर्यंच गति का कारण कहा है। मनुष्यायु
भगवती सूत्र में मनुष्यायु बंध के कारणों का प्रतिपादन करते हुए कहा गया हैगोयमा? पगइभद्दयाए, पगइविणीययाए, आणुक्कोययाए, अमच्छरिययाए मणुस्याउय कम्मा जावपओगबंधे।।
-भगवती सूत्र, शतक 8, उद्देशक 9, सूत्र 105 तत्त्वार्थसूत्र में कहा हैअल्पारम्भपरिग्रस्त्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्य।
__ -तत्त्वार्थसूत्र,6.1 अर्थात् प्रकृति की भद्रता, विनीतता, मृदुता, ऋजुता, दयालुता, अमत्सरभाव और आरम्भ-परिग्रह की अल्पता से मनुष्य आयु का बंध होता है।जहाँ हृदय की मृदुता अर्थात् कोमलता है, सरलता-विनम्रता है तथा दूसरों के दुःख को देखकर हृदय पसीजता है वहाँ मानवता है। जिसमें मानवता है
आयु कर्म
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