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तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय छह, सूत्र सोलहवें में कहा है'बह्वारंभ-परिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः' अर्थात् बहु आरंभ एवं बहु परिग्रह नारक के आयुष्य का कारण है। इसका तात्पर्य है कि आरम्भ एवं परिग्रह की अधिकता नरकायु बंध के विशेष कारण हैं।
विषय, वासना एवं कषाय-कामना से प्रेरित होकर की गई प्रवृत्ति, व्यवसाय या व्यापार को आरंभ कहा जाता है। क्योंकि इससे कार्य या कर्म की शुरूआत होती है। विषय-सुख भोग हेतु इष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए कामना उत्पन्न होती है। कामना उत्पन्न होते ही इष्ट वस्तु प्राप्त नहीं हो जाती है। इष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए मन, वचन, काया से व्यवसाय या कार्य आरम्भ करना पड़ता है। यह आरम्भ करना कामना-अपूर्ति का द्योतक है। जहाँ कामना की अपूर्ति है वहाँ दुःख है। कामना-पूर्ति अपने से भिन्न अर्थात् पर पदार्थ पर निर्भर करती है। अतः कामना-पूर्ति में प्राणी पराधीन है। पराधीनता दुःख ही है। इस प्रकार कामना की उत्पत्ति से लेकर कामना-पूर्ति तक प्राणी कामना-अपूर्ति के दुःख से दुःखी ही रहता है। साथ ही कामना-उत्पन्न होते ही उसका चित्त अशांत हो जाता है। अशान्ति भी दुःख ही है। इससे यह परिणाम निकलता है कि जहाँ कामना है वहाँ आरम्भ है तथा दुःख है। अतः जहाँ बहुत कामनाएँ हैं वहाँ बहु आरंभ है। जहाँ बहु आरम्भ है वहीं बहुत दुःख है, जहाँ बहुत दुःख है वहाँ नरक है। बहु आंरभ नरक का कारण है एवं दुःख रूप है।
विषय-सुख हेतु प्राप्त वस्तुओं का ममत्व व स्वामित्व भावपरिग्रह कहा जाता है। यह नियम है कि जिनका संयोग हुआ है उनका वियोग अवश्यम्भावी है। जहाँ वियोग है वहाँ दुःख है। यह सब का अनुभव है कि एक वस्तु या व्यक्ति का वियोग ही असह्य दुःख देता है। बहु परिग्रही तो अनेक वस्तुओं का स्वामी होता है, अतः उसे बहुत वस्तुओं के वियोग स्वरूप बहुत तीव्र दुःखों को सहना पड़ता है। बहुत तीव्र दुःखों का होना ही नारकीय अवस्था है। परिग्रहधारी वस्तुओं के भोग में सुख मानता है। इस मान्यता के कारण विषय-सुख पाने के लिए उसके हृदय में बहुत कामनाओं की उत्पत्ति होती ही रहती है। बहुत कामनाएँ बहु आरम्भ को जन्म देने वाली हैं। बहु आरम्भ नारकीय यातना देने वाला है- यह तथ्य ऊपर प्रकट हो चुका है। परिग्रह पराधीनता का द्योतक है। बहु परिग्रही आयु कर्म
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