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कारण पदार्थों के साथ आई तद्रूपता या अहंभाव से व्यक्तित्व का सूक्ष्म राग बना रहता है, उससे प्रीति का प्राकाट्य नहीं होता है। फलतः प्राणी प्रीति के नित-नव रस से वंचित हो जाता है। यह उपभोगान्तराय है। मोह के कारण प्रवृत्ति करने का राग पैदा होता है- प्रवृत्ति करने से शक्ति का क्षय होता है-अशक्तता आती है- अशक्तता, निर्बलता ही वीर्यान्तराय है। तात्पर्य यह है कि जहाँ मोह है वहाँ शेष तीनों घाती कर्म हैं। जितना मोह कम- ज्यादा हो उतना ही तीनों घाती कर्मों में न्यूनाधिकता होती है, क्षयोपशम में हानि वृद्धि होती है। अतः मोह पर विजय आवश्यक है।
मोहनीय कर्म
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