________________
बहुत पराधीन है। बहुत पराधीनता बहु दुःख है। अतः बहु परिग्रही को नारकीय यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं अर्थात् उसके नरकायु का बंध होता है। तिर्यंचायु
भगवती सूत्र में तिर्यंचायु बंध के कारणों का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है
गोयमा? माइल्लयाए नियडिल्लयाए अलियवयणेणं कूडतूलकूडमाणेणं तिरिक्वजोणियकम्मासरीर जाव पयोगबंधे।
-भगवती सूत्र शतक 8, उद्देशक 9 सूत्र 104 अर्थात् माया करने से, निकृति (परवंचनार्थ निकृष्ट आचरण करने से), मिथ्या बोलने से, खोटा तोल-माप करने से तिर्यंचायु का बंध होता है।
माया तैर्यग्योनस्य।-तत्त्वार्थ सूत्र, 6.17
अर्थात् तिर्यंचायु का कारण माया है। जो प्राणी उन्नत मस्तक के साथ गति नहीं कर सकता, वह तिर्यंच है। उन्नत मस्तिष्क मुख्यतः तीन बातों का द्योतक है 1. गौरवशाली (गुण गरिमामय) जीवन होना 2. बुद्धिमान होना 3. विकसित चेतना वाला होना। ये तीनों बातें तिर्यंचों में नहीं पायी जाती हैं।
तिर्यंच में चेतना कम विकसित होती है। जिस प्राणी में चेतना का जितना कम विकास होता है, वह उतना ही स्थूल (मंद) बुद्धि होता है और स्थूल जगत् में विचरण करता है। अविकसित बुद्धि केवल देह और इन्द्रिय भोगों तक ही सीमित रहती है; शब्द, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श सम्बन्धी विषयों में लगे रहने तक ही उसका जगत् है। ऐसा प्राणी इन्हीं विषयों के भोगों में लगा रहता है तथा इन्हीं में सुख मानता है। उसे भोग के परिणामस्वरूप होने वाले दुःखों का बोध नहीं होता।
विषयरत प्राणी का हृदय भोग में लगे रहने के कारण कठोर हो जाता है। उसे दूसरे के दुःख का अनुभव नहीं होता। मोर, चीते, बाज, गिद्ध आदि पशु-पक्षियों में यह बात प्रत्यक्ष देखी जाती है। जीवों को तड़पा कर मारने वाले की आँखों में क्रूरता स्पष्ट झलकती है। जीवों की तड़पड़ाहट से उसका हृदय जरा भी अनुकम्पित या करुणित नहीं होता। इसी प्रकार बूचड़खाने में पशुओं व होटलों में मुर्गों को मारते समय उनकी छटपटाहट
138
आयु कर्म