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से अपने को स्वाधीन अनुभव करना पराधीनता में स्वाधीनता मानना है, जो मिथ्यात्व है- मिथ्याज्ञान है, विपर्याय है, भूल है, अज्ञान है। इस पराधीनता को जानते हुए भी इनके सुख की दासता में आबद्ध होना, इन्हें न त्यागना, अपने ज्ञान की उपेक्षा करना है, अनादर करना, यही ज्ञान पर आवरण है। अभिप्राय यह है कि प्राणी का ज्ञान कभी नष्ट नहीं होता, उस पर आवरण आता है या उसका विपर्यास होता है, भ्रान्ति होती है। आगम में ज्ञान पर आए आवरण को अज्ञान नहीं कहा है- भ्रान्ति को अज्ञान कहा है। जो ज्ञान जीवन के लिए हितकर है, राग, द्वेष, मोह, विषय-कषाय आदि विकारों को दूर करने वाला है, वही सम्यक ज्ञान है। कहा भी है-णाणस्स फलं विरई । अर्थात् ज्ञान का फल विरति है। जो विषय-कषाय को बढ़ाने वाला, कामना-वासना उत्पन्न करने वाला है, वह ज्ञान नहीं है, अज्ञान है।
मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय व केवलज्ञान- इन पाँचों ही ज्ञानों पर आवरण आता है और जब तक मोह का उदय रहता है, तब तक आवरण का बंध व उदय रहता ही है। यह नियम है कि मोह के घटने-बढ़ने से आवरण घटता-बढ़ता है, इसलिये मोह के क्षीण होने के पश्चात् ही ज्ञान से आवरण का पूर्ण क्षय होता है। इस प्रकार आवरण के बंध का कारण अनाचरण, ज्ञान का अनादर रूप चारित्र-मोह है। किन्तु अज्ञान का सम्बन्ध दर्शनमोहनीय से ही है अर्थात् दर्शन व दृष्टि से है। जहाँ सम्यकदर्शन है, वहीं ज्ञान है और जहाँ सम्यक् दर्शन का अभाव है, वहाँ अज्ञान है। दर्शन का सम्बन्ध मान्यता से है। जो जीव इन्द्रिय व देह तथा इनसे मिलने वाले सुख को अपना जीवन मानता है, वह मिथ्यादृष्टि है और जो इनको जीवन नहीं मानता है और ध्रुवत्व की प्राप्ति में अपना जीवन मानता है, वह सम्यकदृष्टि है। सम्यकदृष्टि का लक्ष्य मुक्ति पाना है और मिथ्यादृष्टि का लक्ष्य विषय-भोगों को प्राप्त करना है।
जैन-दर्शन में अज्ञान शब्द का प्रयोग ज्ञान के निषेध, अल्पज्ञान व ज्ञान के अभाव के रूप में प्रयुक्त नहीं हुआ है, प्रत्युय विपरीत ज्ञान के लिए प्रयुक्त हुआ है। जिस ज्ञान का लक्ष्य व निर्णय शरीर व संसार से अतीत होना है व दुःख से आत्यन्तिक मुक्ति पाना है, वह ज्ञान सम्यक् ज्ञान है। क्योंकि इसी में जीव का हित है, परन्तु जो दुःख से मुक्ति पाना तो चाहता है, किन्तु दुःख से मुक्ति पाने के लिये विषय-सुखों का सेवन करता है,
ज्ञानावरण कर्म