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दर्शन गुण व ज्ञान गुण प्राणिमात्र में सदैव विद्यमान रहते हैं। इन गुणों में न्यूनाधिकता, हास-विकास भी नहीं होता। हमें जो ज्ञान-दर्शन में न्यूनाधिकता, ह्रास-विकास की प्रतीति होती है वह मोह के कारण इन गुणों पर आये आवरण में न्यूनाधिकता के कारण होती है। आवरण के कारण गुण प्रकट नहीं होता, परन्तु गुण नष्ट नहीं होता है, न उसमें क्षति या ह्रास होता है। किसी वस्तु का प्रकट नहीं होना, उसका विनाश होना या अभाव होना नहीं है।
आश्य यह है कि ज्ञान और दर्शन ये दोनों गुण प्राणिमात्र में सदैव ज्यों के त्यों विद्यमान रहते हैं। परन्तु प्राणी उपयोग एक समय में किसी एक गुण का ही कर सकता है कारण कि सविकल्प और निर्विकल्प ये दो विरोधी स्थितियाँ हैं। अतः दोनों का उपयोग एक साथ नहीं हो सकता। अर्थात जब ज्ञानोपयोग होता है, तब दर्शनोपयोग नहीं होता और जब दर्शनोपयोग होता है तब ज्ञानोपयोग नहीं होता। ज्ञानोपयोग हो अथवा दर्शनोपयोग, उस उपयोग के समय चेतना में ज्ञान और दर्शन ये दोनों गुण ज्यों के त्यों विद्यमान रहते हैं। दर्शनगुण, दर्शनोपयोग, ज्ञानगुण एवं ज्ञानोपयोग में भेद
__पहले कह आए हैं कि जीव का लक्षण 'दर्शन' और 'ज्ञान' है। इनमें पहले दर्शन होता है और पीछे ज्ञान होता है। अर्थात् दर्शन होने पर ही ज्ञान होता है। अतः दर्शन का महत्त्व ज्ञान से भी अधिक है। (धवलाटीका पुस्तक, 1 पृष्ठ 385) दर्शन है-'स्व-संवेदन' । इसी दर्शन के निर्विकल्पता, अनाकार, अभेद, सामान्य, अंतर्मुख चैतन्य, अंतरंग ग्रहण, आलोचन, अव्यक्त, निर्विशेष आदि पर्यायवाची शब्द हैं। वस्तुतः जिसमें संवेदन गुण है वही चेतन है, जीव है। संवेदन होने के पश्चात् उस संवेदना के प्रति अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा आदि विकल्पों के रूप में ज्ञान होता है। संवेदना न हो तो ज्ञान का उपयोग ही न हो। अतः जहाँ संवेदन शक्ति रूप दर्शनगुण है, वहाँ ही चेतना है, जीव है। (धवलाटीका पुस्तक 1, पृष्ठ 196)
__अभिप्राय यह है कि दर्शन गुण ही चेतना का आधारभूत मूल गुण है। दर्शनगुण की पहली विशेषता स्वसंवेदनशीलता है और दूसरी विशेषता निर्विकल्पता है, अर्थात् जहाँ संवेदनशीलता है, वहीं निर्विकल्पता भी है और जहाँ निर्विकल्पता है, वहीं संवेदनशीलता है। इसी तथ्य को पुष्ट करते हुए
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दर्शनावरण कर्म