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स्वभाव से किसी प्राणी को इष्ट नहीं हैं, परन्तु प्राणी सुख - दुःख की वास्तविकता पर ध्यान न देने से दासता और भय में आबद्ध हो जाता है ।
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साता-असाता रूप सुख-दुःख विस्रसा से अर्थात् प्राकृतिक - नियम (विधान) से स्वतः आते हैं । प्राकृतिक विधान में किसी का भी अहित, अमंगल, अकल्याण नहीं है । इसी तथ्य के आधार पर जैन दर्शन में वेदनीय 1 कर्म को पूर्ण रूप से अघाती कर्म कहा है, देश घाती भी नहीं कहा है। घाती कर्म वह है जो जीव के गुण का घात करे, हानि पहुँचाए । देशघाती वह है जो जीव के गुण को आंशिक हानि पहुंचाएं, जो आंशिक या लेशमात्र भी हानि न पहुंचाए वह अघाती कर्म है । अतः सुख-दुःख के आने में प्राणी की कोई हानि नहीं है, प्रत्युत इनका सदुपयोग करने में मानव का कल्याण है। सुख आता है सेवा के लिए और दुःख आता है त्याग के लिए । आए हुए सुख का भोग न करके उसे पर पीड़ा से पीड़ित व करुणित हो सेवा में लगाने से विद्यमान (उदयमान ) राग का उदात्तीकरण (Sublimation) हो कर वह निःसत्त्व व निर्जरित हो जाता है। उससे नवीन कर्म का बंध नहीं होता और पुराने राग का निष्कासन होकर उससे छुटकारा मिल जाता है अतः सुख के सदुपयोग का फल है विद्यमान राग की निवृत्ति । इसी प्रकार दुःख आता है त्याग का पाठ पढ़ाने के लिए। कारण कि दुःख, सुख के भोग का द्योतक व परिणाम है । दुःख से मुक्ति पाने का उपाय है सुख के भोग का त्याग कर देना; सुखप्रद सामग्री से सेवा करना । सेवा में भी अपने आए हुए सुख का त्याग ही करना है। अतः सुख - दुःख प्रकृति से भोगों के त्याग का पाठ पढ़ाने के लिए आते हैं । त्याग से सुख - दुःख से अतीत के जीवन में प्रवेश संभव है। सुख - दुःख से अतीत के जीवन में अविनाशी से अभिन्नता हो जाती है। अविनाशी से अभिन्नता का अनुभव होते ही अक्षय-अव्याबाध-अनंत रस (सुख) की अभिव्यक्ति, उपलब्धि स्वतः होती है । अतः सुख-दुःख बुरे नहीं हैं, सुख-दुःख का भोग बुरा है ।
किसी भी प्राणी के न चाहने पर देह में रोगोत्पत्ति हो जाती है। इससे प्रथम तो यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि देह पर हमारा अधिकार नहीं है । द्वितीय, देह नश्वर है, इसे मृत्यु से नहीं बचाया जा सकता । तृतीय, देह का संग करने वाले को भूख, प्यास व रोगोत्पत्ति जनित दुःख विवश होकर भोगना पड़ता है । अतः देह का संग दुःखप्रद है । इस प्रकार रोगोत्पत्ति से
वेदनीय कर्म
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