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(5-6) अजीव को जीव तथा जीव को अजीव श्रद्धना
अपने को देह मानना जीव को अजीव मानने रूप मिथ्यात्व है और देह के अस्तित्व को अपना अस्तित्व मानना अजीव को जीव मानने रूप मिथ्यात्व है। ये दोनों मिथ्यात्व एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, एक ही सिक्के के दो पहल हैं। देह पौदगलिक है, हाड़-मांस-रक्त से बनी हुई है, अंत में मिट्टी में मिलकर मिट्टी बन जाने वाली है। मिट्टी और देह दोनों एक ही जाति के हैं। अतः अपने को देह मानना अपने को मिट्टी (जड़) मानना है, जीव को अजीव मानना है, जो विवेक के विरुद्ध है। आत्मा यदि देह होती तो देह के अंग हाथ-पैर आदि अंश कट जाने पर आत्मा में भी उतने ही अंशों में कमी हो जाती, परन्तु ऐसा नहीं होता है। देह के अंग-भंग होने पर भी आत्मा के अंश का भंग नहीं होता, आत्मा अखण्ड रहती है। अतः यह सिद्ध होता है कि देह आत्मा या जीव नहीं है। देह का नाश होने पर आत्मा का नाश नहीं होता है। अतः देह के अस्तित्व को अपना जीवन व जीव मान लेना भूल है, मिथ्यात्व है। अपने को देह मान लेने से ही विषय-भोगों की इच्छा, राग-द्वेष, कामना, ममता, माया, लोभ आदि समस्त दोषों की एवं भूख-प्यास, भय, चिन्ता, खिन्नता, रोग-शोक आदि समस्त दुःखों की उत्पत्ति होती है अर्थात् अपने को देह मानना ही समस्त दोषों व दुःखों का मूल है। ये दोनों मिथ्यात्व आत्मा के स्वरूप से संबंधित हैं। (7-8) असाधु को साधु और साधु को असाधु श्रद्धना
जो विषयभोगों से विरत होकर दुःखमुक्त होने की साधना कर रहा है वह साधु है तथा जो विषयभोगों की ओर गतिशील है वह असाधु है। इन्द्रियों के विषय-भोग विकार हैं, दोष हैं एवं समस्त दुःखों की जड़ हैं। जो इन विषय-भोगों में गृद्ध है, आबद्ध है, भोग सामग्री बढ़ाने में एवं परिग्रह की वृद्धि करने में रत है, उसे सुखी, श्रेष्ठ एवं पुण्यात्मा मानना उसके जीवन को सार्थक व सफल मानना असाधु को साधु मानने रूप मिथ्यात्व है और जिसने भोगों को, परिग्रह को, हिंसा-झूठ आदि पापों को त्यागकर संयम धारण किया है, वीतराग मार्ग का आचरण कर रहा है उसे परावलंबी, पराधीन, असहाय, अनाथ व दुःखी मानना साधु को असाधु मानने रूप मिथ्यात्व है। ये दोनों मिथ्यात्व साधक के स्वरूप से संबंधित हैं।
मोहनीय कर्म
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