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प्रभावित होकर विषय-भोगों की दासता का त्याग करना, संयम धारण करना, इन्द्रिय व मन को भोगों से हटाना, प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षय या उपशम है। पहले के भोगे हुए विषय भोगों के संस्कारों के उदय में आने से चित्त का क्षुब्ध होना, चंचल होना, संज्वलन कषाय है। इसका उदय न होना संज्वलन कषाय का उपशम है और कषाय के प्रभाव के सर्वथा नष्ट हो जाने से संज्वलन कषाय का क्षय हो जाता है। इस अवस्था में कुछ क्षण टिकने के पश्चात् पूर्ण चैतन्य का सदा के लिए अनुभव हो जाता है। फिर जानना, पाना, करना कुछ भी शेष नहीं रह जाता है। जानना शेष न रहने से अनन्तज्ञान, चैतन्य का पूर्ण अनुभव हो जाने से अथवा निर्विकल्प- बोध हो जाने से अनन्तदर्शन, साध्य की उपलब्धि होने से वस्तु, व्यक्ति, भोगों की इच्छा, कामना, ममता, तादात्म्य व कर्तृत्व भाव का सर्वथा नाश हो जाने से पाना व करना शेष न रहने से क्षायिक चारित्र की अभिव्यक्ति होती है। नोकषाय
कषाय में सहायक प्रवृत्तियाँ नोकषाय हैं। हास्यादि 9 नोकषायों का संक्षेप में स्वरूप इस प्रकार है- इष्ट वस्तु के संयोग से व भोग से हर्षित होना हास्य है, उसमें रस लेना, रत होना रति है। हास्य-रति ये दोनों बंध एवं उदय में युगपत् होते हैं। इन दोनों का जोड़ा है। अनिष्ट संयोग से अरुचि होना- अरति है और उससे खिन्न होना शोक है। अरति और शोक का जोड़ा है। इन दोनों का बंध व उदय युगपत् होता है। इष्ट संयोग का वियोग न हो जाय, अनिष्ट का संयोग न हो जाय अर्थात् दुःख न आ जाय, इस प्रकार दुःख से भयभीत होना भय कषाय हैं। अनिष्ट संयोग से अरुचि होना, घृणा होना, फिर उसे दूर करने का उपचार-उपाय या चिकित्सा करना जुगुप्सा है। इष्ट वस्तु की प्राप्ति में, अनिष्ट के निवारण में अपने को समर्थ मानकर वैसा करने में तत्पर होना, पुरुषार्थ करना पुरुष वेद है। इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट निवारण में पराश्रय की अपेक्षा व अनुभव करना स्त्री वेद है। भोगेच्छा का रहना या होना, परन्तु उस इच्छा की पूर्ति करने में अपने को असमर्थ मानना-अनुभव करना नपुंसक वेद है।
हास्य-रति-अरति-शोक : वर्तमान में हास्य कषाय का अर्थ हँसना किया जाता है, परन्तु यह अर्थ आगम व कर्म-सिद्धान्त से मेल नहीं खाता है। कारण कि कर्म-सिद्धान्त के अनुसार हास्य और रति का जोड़ा तथा
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मोहनीय कर्म