________________
नशे में मस्त रहते हैं। पास्कल कहता है- "इसका कारण यह है कि मरण उनकी आँखों के सामने प्रतिक्षण मौजूद रहता है। उसे भूलने के लिए वे आनन्द का आभास खड़ा करते हैं।' मन में जीने की अभिलाषा का, दूसरे शब्दों में मरण के भय का कांटा चुभता रहता है। उस दुःख को भुलाने के लिए खेल-तमाशों द्वारा कृत्रिम वातावरण उत्पन्न कर अपने को उन्माद अवस्था में लाने का प्रयत्न करते रहते हैं। इस प्रकार जीवन की अभिलाषा व भय मरने तक चलते ही रहते हैं और मरने के पश्चात् भी पीछा नहीं छोड़ते हैं। परन्तु जिसने भोगेच्छा छोड़ दी है, उसके लिए शरीर का होना या न होना कोई अर्थ नहीं रखता है। उसके लिए शरीर की आवश्यकता नहीं रहती है। जीने की कामना न रहने से मृत्यु के भय का अभाव हो जाता है। वह जीवन-मरण से छुटकारा पा जाता है। उसके सारे दुःख अपने आप मिट जाते हैं। देह से अपनेपन का भाव मिटा कि सारी चिन्ता मिटी, फिर उसके भय व जुगुप्सा का बंध व उदय नहीं होता है।
जुगुप्सा शब्द के दो अर्थ प्रचलित हैं- 1.घृणा और 2. विचिकित्सा। घृणा उसी से होती है और चिकित्सा या उपचार उसी का किया जाता है जो अपने को अप्रिय हो । दुःख सभी को अप्रिय है अतः दुःख आने का भय प्रायः सभी को लगता है और आया हुआ दुःख सभी को अप्रिय लगता है। अर्थात् उससे घृणा होती है तथा उसे मिटाने का उपचार (चिकित्सा) भी सभी करते हैं। अतः भय और जुगुप्सा ये दोनों दुःख से संबंधित हैं यथा नया दुःख न आ जाये यह भय है और आया हुआ दुःख जो कि अरुचिकर है अनिष्ट है वह कैसे दूर हो, उसका उपचार करना विचिकित्सा है। विचिकित्सा घृणा-अप्रियता के साथ जुड़ी हुई है। अतः जहाँ घृणा है वहाँ विचिकित्सा है और दोनों का समन्वित नाम जुगुप्सा है।
जो प्राणी दुःख से घबराते हैं उन्हीं में भय और जुगुप्सा उत्पन्न होते हैं। दुःख से वे ही घबराते हैं या भयभीत होते हैं जो विषय-सुख के भोगी हैं। सुख के भोगी को अनुकूलता चाहिए अतः उसे अनुकूलता के जाने का एवं प्रतिकूलता के आने का भय सताता रहता है। क्योंकि कोई भी अनुकूलता सदैव नहीं रहती है। अनुकूलता न जाने पाये, ऐसा चाहने पर भी चली ही जाती है और प्रतिकूलता न आने पावे, ऐसा चाहने पर भी प्रतिकूलता आ ही जाती है। ऐसा प्राकृतिक नियम ही है। अतः प्राणी को
128
मोहनीय कर्म