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अरति और शोक का जोड़ा है। यह नियम है कि जहाँ रति होगी वहाँ हास्य होगा ही और जहाँ अरति होगी वहाँ शोक होगा ही तथा रति और हास्य एवं अरति और शोक इन दोनों जोड़ों में से एक जोड़े का उदय प्रत्येक मिथ्यात्वी जीव के नियम से सदैव होता है। कोई भी मिथ्यात्वी एवं प्रमादी जीव ऐसा नहीं हो सकता जब इन दोनों जोड़ों में से एक का भी उदय उसके न हो। तात्पर्य यह है कि जहाँ रति का उदय (अनुभव) होगा वहाँ उसी समय नियम से हास्य का उदय भी (अनुभव) होगा और यह एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों के होता है। यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कि जब कोई भी प्राणी परिस्थिति की अनुकूलता का रस लेता है अर्थात् उसके रति का उदय होता है तब वह प्राणी हँसता हो, ऐसा नहीं होता है, जबकि उस समय उसके हास्य का उदय नियम से होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि हास्य का अर्थ हंसना नहीं है, परन्तु अनुकूलता के रस रूप रति के उदय के समय हर्ष का होना है। अतः हास्य का अर्थ हर्ष ही उपयुक्त लगता है। जैसे रति के साथ हास्य है वैसे ही अरति के साथ शोक जुड़ा हुआ है। ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी हैं। इससे यह फलित हुआ कि जैसे अरति का उलटा रति है वैसे ही शोक का विरोधी हास्य है। शोक का विलोम हास्य होने से हास्य का अर्थ हर्ष ही समीचीन लगता है।
अथवा वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति की अनुकूलता का रुचिकर लगना ‘रति' और इनकी प्रतिकूलता का अरुचिकर लगना 'अरति' है। अनुकूलता में हर्ष (हास्य) और प्रतिकूलता में शोक (खेद, खिन्नता) होता ही है। इसलिए कर्म-सिद्धान्त में रति और हास्य का जोड़ा एवं अरति और शोक का जोड़ा कहा गया है अर्थात् जहाँ रति होगी वहाँ हास्य होगा ही और जहाँ अरति होगी वहाँ शोक होगा ही। रति के साथ हास्य और अरति के साथ शोक जुड़ा हुआ है। यह नियम हास्य और रति के बंध, उदय, उदीरणा, सत्ता व क्षय सब पर सर्वत्र लागू होता है।
___हर्ष और रति राग के तथा अरति और शोक द्वेष के द्योतक हैं। अतः जितना-जितना राग-द्वेष घटाया जाता है अर्थात् विरति (वैराग्य) भाव बढ़ता जाता है; रति और हास्य (हर्ष) का एवं अरति और शोक का प्रभाव (अनुभाव) अर्थात् अनुभाग घटता जाता है। रति और हास्य (हर्ष) तथा
मोहनीय कर्म
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