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(14) अप्रत्याख्यानावरण लोभ- लोभ से, तृष्णा से होने वाले अभाव,
अतृप्ति, असंतोष आदि दुःखों से मुक्त होने की भावना न होना, अEि काधिक संग्रह करने के लिए प्रयत्नशील होना, इच्छाओं को घटाने का व इनको सीमित व परिमित करने का प्रयत्न न करना,
अप्रत्याख्यानावरण लोभ है। (15) प्रत्याख्यानावरण लोभ- लोभ के त्याग से मिलने वाले संतोष,
शान्ति, ऐश्वर्य आदि दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए प्रयत्न न करना
अर्थात् लोभ का त्याग न करना प्रत्याख्यानावरण लोभ है। (16) संज्वलन लोभ- लोभ की रुचि-उत्पत्ति से होने वाले अभाव,
अतृप्ति, दरिद्रता के अनुभव की आग में जलना संज्वलन लोभ है।
सारांश यह है कि भोगों की उपलब्धि में ही जीवन है, सुख है, भोग स्थायी रूप से रहने वाले हैं, यह मान्यता ही मिथ्यात्व है। भोगों का अंत कभी नहीं हो, इसके लिए सतत प्रयत्नशील रहना अनन्तानुबंधी कषाय है। विषय-भोगों की ओर सम्मुख होना, उनकी वृद्धि करने का प्रयत्न करना अप्रत्याख्यानावरण कषाय है, विषय भोगों के त्याग की भावना न होना प्रत्याख्यानावरण कषाय है। विषय सुखों के विकारों की स्फुरणा से जलते रहना संज्वलन कषाय है।
इसके विपरीत यह यथार्थ बोध होना कि विषय-सुख क्षणिक है, यह सुख नहीं होकर सुखाभास है; विषय-सुख की सामग्री सड़न-गलन, विघ्वसन वाली होने से अशुचिमय एवं नश्वर है, पराधीनता में आबद्ध करने वाली है तथा विषय-सुख अभाव, तनाव, दबाव, हीनभाव, भय, चिन्ता, द्वन्द्व आदि भयंकर दुःखों का हेतु है, दुःखद होने से विषय-सुख त्याज्य है, मुझे स्वाधीन होना है, जो स्वरूप से स्व-भाव में स्थित होने से ही संभव है, ऐसा लक्ष्य बनाना सम्यग्दर्शन है। विषयभोग के सुख की नश्वरता को अवश्यम्भावी जानकर उसमें जीवन नहीं है, यह बुद्धि रखना, स्वाधीनता में ही, स्वरूपरमणता में ही जीवन है इसके लिए प्रयास करना अनन्तानुबंधी का क्षय या उपशम है। विषय-सुखों को समस्त दुःखों का मूल जानकर उनसे विमुख होना अर्थात् उनका बढ़ाना रोककर उन्हें घटाने का प्रयत्न, पुरुषार्थ या पराक्रम करना- अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उपशम व क्षय है। संयम में ही शान्ति, स्वाधीनता का अक्षय- अखंड सुख है। इस सुख से
मोहनीय कर्म
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