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समस्त वस्तुएँ पर हैं। इनके संयोग से मिलने वाला विषय-भोगों का एवं सम्मान-सत्कार, पद-प्रतिष्ठा आदि का सुख विभाव है। इस सुख को स्वभाव मानना, जीवन मानना अधर्म को धर्म मानना है तथा इस सुख की पूर्ति, पोषण व रक्षण के लिए दूसरों का शोषण करना, धन का अपहरण करना, हिंसा, झूठ आदि पाप करना भी अधर्म है। इस अधर्म को अपना कर्तव्य मानना, आवश्यक मानना, न्यायसंगत मानना भी अधर्म को धर्म मानना है। इसी प्रकार अकरुणा को अर्थात् करुणा के त्याग को, दया भाव के त्याग को स्वभाव व धर्म मानना अधर्म को धर्म मानने रूप मिथ्यात्व है।
संयम, त्याग, तप, मैत्री, प्रमोद, करुणा, अनुकंपा, वात्सल्य, वैयावृत्त्य-सेवा, दान, दयालुता, मृदुता, विनम्रता, सरलता आदि गुण जीव के स्वभाव हैं, धर्म हैं, क्योंकि ये किसी कर्म के उदय से नहीं होते हैं। इन गुणों को विभाव मानना, संसार-भ्रमण का एवं दुःख का कारण मानना, धर्म को अधर्म मानना है। यह मिथ्यात्व जीव के स्वभाव-विभाव से संबंधित है। (3-4) उन्मार्ग को मार्ग और मार्ग को उन्मार्ग श्रद्धना
विषय-सुखों की प्राप्ति के लक्ष्य से जो भी कार्य किए जायें वे उन्मार्ग हैं। इस दृष्टि से भोगों की प्राप्ति के लिए किए गए आरम्भ-परिग्रह, हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार आदि कार्य जो उन्मार्ग हैं, उन्हें जीवन मानना उन्मार्ग को मार्ग मानना है। जो भक्ति-भजन, संयम, त्याग, तप, जप आदि साध नाएँ संपत्ति, संतति, सत्कार, सम्मान, पद, प्रतिष्ठा पाने के लोभ से या स्वर्ग के भोगों के सुख पाने के प्रलोभन के लक्ष्य से की जाती हैं वे भोग का पोषण, संरक्षण, संवर्धन करने वाली होने से साधनाओं के वेश में सन्मार्ग के रूप में असाधन व उन्मार्ग हैं। कारण कि हिंसा, झूठ, चोरी आदि दोष या दुष्प्रवृत्तियाँ दोष के रूप में आती हैं, उन्हें दूर करने की प्रेरणा कभी भी जग सकती है, क्योंकि दोषी कहलाना या रहना किसी को भी इष्ट नहीं है। परन्तु जो दोष गुण व धर्म के रूप में आते हैं उन्हें व्यक्ति हितकारी मानकर पुष्ट करने में अपना कल्याण समझता है। उसमें इन्हें त्यागने का विचार ही पैदा नहीं होता है और वह व्यक्ति अपने को साधन-पथ पर, सन्मार्ग पर चलने का मिथ्या विश्वास व झूठा संतोष देता रहता है। परन्तु जब ये साधनाएँ राग-द्वेष, विषय-कषाय के सुखों के त्याग के लक्ष्य से की जाती हैं तो सन्मार्ग हो जाती हैं। आशय यह है कि विषय-विकारों
मोहनीय कर्म
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