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मोहनीय कर्म
मोहनीय कर्म का स्वरूप
जो कषाययुक्त प्रवृत्ति मोहित करे, मूर्छित करे, हित-अहित सत्-असत्, सही-गलत की पहचान न होने दे वह मोहनीय कर्म है। इसका स्वभाव मद्य के समान है। जैसे मद्य (शराब) के नशे में मनुष्य को अपने हिताहित का भान नहीं रहता है उसी प्रकार मोहनीय कर्म के उदय से जीव को अपने स्वरूप एवं हित-अहित, हेय-उपादेय को परखने का बोध नहीं रहता है। वह स्वभाव को भूल जाता है और विभावग्रस्त हो जाता है। जितने भी विकार या दोष हैं, पाप हैं इनका मूल कारण मोहनीय कर्म ही है। मोह के कारण ही जीव स्वभाव के विपरीत आचरण करता है। ___मोहग्रस्त व्यक्ति के लिए मोह को समझना उतनी ही टेढ़ी खीर है जितनी टेढ़ी खीर बेहोश व्यक्ति द्वारा यह समझ सकना कि वह बेहोश है। किसी को बेहोशी का ज्ञान होना होश में आने का सूचक है। जितना-जितना व्यक्ति होश में आता जाता है, उतना-उतना उसे अपनी बेहोशी का ज्ञान होता जाता है। इसी प्रकार जितना--जितना मोह घटता जाता है, उतना-उतना मोह के स्वरूप का अधिक-अधिक ज्ञान होता जाता है। जिस समय व्यक्ति कामना रहित, तटस्थ, शांत व समता अवस्था में है, उस समय कामना में न बहकर-कामना के प्रवाह में बहते समय जो बेसुध होने की स्थिति हई, उसे शान्तचित्त से देखे तो वह अपनी मोहावस्था का ज्ञान कर सकता है। उस समय उसे पता चल सकता है कि जिस समय कामना के प्रवाह में बहा, उस समय चित्त कितना अशान्त, क्षुब्ध, व्याकुल, बेहोश हुआ एवं हृदय विदारक वेदना हुई।
व्यक्ति मोह के कारण यथार्थता को नहीं देख पाता। वह हाड़, मांस, रक्त, शकृत्, मूत्र आदि अशुचि वस्तुओं के पुतले (शरीर) में सौंदर्य, मरणशील को स्थायी, दुःख को सुख, पराधीनता को स्वाधीनता, धन-भवन आदि जड़ वस्तुओं को जीवन मान लेता है और इन्हीं की प्राप्ति में अपना मोहनीय कर्म
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