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का पालन नहीं हो सकता तथा वीतरागता की ओर एक कदम भी बढ़ना संभव नहीं है।
सम्यक्त्व मोहनीय
जिस कर्म प्रकृति के उदय से जीव सम्यग्दर्शनजनित शान्ति के सुख में रमण करने लगे और यथाख्यात चारित्र के प्रति उत्कृष्ट उत्कंठा न होने लगे वह सम्यक्त्व मोहनीय है। दूसरे शब्दों में सम्यक्त्व में मोहित होना आगे न बढ़ना सम्यक्त्व मोहनीय है। सम्यग्दर्शन के प्रभाव से शान्ति का अनुभव होता है। उस शान्ति के सुख का भोग करना, उसी में रमण करना, संतुष्ट रहना और चारित्र मोहनीय के उपशम व क्षय के लिए पराक्रम न करना या पराक्रम में शिथिलता आना अर्थात् प्रमादग्रस्त रहना सम्यक्त्व मोहनीय है। तात्पर्य यह है कि शान्ति का संपादन करते हुए, उसे सुरक्षित रखते हुए भी साधक का लक्ष्य, चित्त की शान्त अवस्था में रमण न करके, इससे ऊपर उठकर - असंग होकर चारित्र मोह का क्षय कर वीतराग होना है। इसके लिए पुरुषार्थ न कर शान्ति में रमण करना, संतुष्ट रहना सम्यक्त्व मोहनीय है ।
सम्यक्त्व का सुख विषयभोग के समान प्रतिक्षण क्षीण नहीं होता है, परन्तु यह अव्याबाध नहीं है । अव्याबाध सुख चारित्र मोह के क्षय एवं वीतरागता से ही सम्भव है । सम्यक्त्व सुख में रमण करना ऐसा ही है, जैसा किसी पथिक द्वारा पथ में आए सुन्दर, सुखद, रमणीय उद्यान में रमण करना अपने गन्तव्य स्थान की ओर न बढ़ना, गन्तव्य स्थान से वंचित रहना । इसी प्रकार सम्यक्त्व मोहनीय के सुख में रमण करना, उसमें सन्तुष्ट होना चारित्र मोह के क्षय से अनुभूत वीतरागता के अव्याबाध व अनन्त सुख से वंचित रहना है । साध्य की ओर आगे न बढ़कर विद्यमान साधना में ही संतुष्ट हो जाना सम्यक्त्व मोहनीय है।
मिश्र मोहनीय
जिस कर्म के उदय से सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों के प्रति श्रद्धा हो वह मिश्र मोहनीय है। इसका उदय अंतर्मुहूर्त से अधिक काल तक नहीं रहता है। विषय-भोगों के सुख के साथ पराधीनता, जड़ता, चिन्ता आदि असंख्य दुःख लगे होने से विषय भोग के सुख को हेय व त्याज्य मानना व निज - स्वरूप में स्थित होने को उपादेय मानना सम्यग्दर्शन है। इसके
मोहनीय कर्म
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