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अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलन ये चार राग- - द्वेष की वृत्तियाँ हैं, भाव हैं, क्वालिटी हैं, ये क्वान्टिटी नहीं हैं ।
क्रोधादि चारों कषायों एवं उनके अनन्तानुबंधी आदि प्रकारों का संक्षेप में आगे प्रतिपादन किया जा रहा है।
क्रोध कषाय
चित्त का कुपित, क्षुब्ध व अशान्त होना क्रोध है । चित्त कुपित, क्षुब्ध व अशान्त होता है- द्वेष व वैर भाव से, कामना अपूर्ति से, प्रतिकूलता से, विषय-सुख में बाधा उत्पन्न होने से विषय - सुख में जब कोई बाधक होता है तो उसके प्रति द्वेष, वैरभाव, कोप या क्रोध उत्पन्न होता है । अतः किसी का बुरा मानना, बुरा चाहना, बुरा कहना, बुरा करना, ये सब भी क्रोध के ही रूप हैं और इन सबका कारण अपने दुःख-सुख का कारण अन्य को मानना है ।
(1) अनन्तानुबंधी क्रोध
अपने सुख में बाधा उत्पन्न होने पर चित्त का निरन्तर क्षुब्ध या अशान्त होना अनन्तानुबंधी क्रोध है। यह दूसरे को दुःख का कारण मानने की मिथ्या मान्यता के कारण होता है एवं सुख में दूसरे को बाधक मानकर व्यक्ति उससे निरन्तर वैरभाव रखता है तथा कभी क्षमा नहीं करना ।
(2) अप्रत्याख्यानवरण क्रोध- क्रोध से उत्पन्न होने वाले अशान्ति, खिन्नता, चिन्ता, तनाव, भय आदि दुःखों को जानते हुए भी सहन करते रहना, परन्तु क्रोध के त्यागने व घटाने का भाव उत्पन्न न होना अप्रत्याख्यानावरण क्रोध है ।
(3) प्रत्याख्यानावरण क्रोध- क्रोध को त्याग कर क्षमा व शान्ति धारण करने से प्रसन्नता, निश्चिन्तता, निर्भयता आदि स्वाभाविक सुखों की उपलब्धि होती है । यह जानते हुए भी क्षमा धारण न करना प्रत्याख्यानावरण क्रोध है ।
( 4 ) संज्वलन क्रोध - क्रोध जनित कार्यों की स्मृति का उदय होने से खेद व खिन्नता की आग में जलना संज्वलन क्रोध है ।
सारांश यह है कि कामना की उत्पत्ति तथा उसकी पूर्ति में बाधा पड़ना, चित्त का क्षुब्ध या अशान्त होना कामना पूर्ति के सुखों की उपलब्धि में जीवन मानना, कामना पूर्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहना
मोहनीय कर्म
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