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दर्शनोपयोग (निर्विकल्पता) सम्यक् दर्शन की उपलब्धि में व दर्शन मोह के क्षय में सहायक होता है। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान में सहायक होता है। सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान के अनुरूप आचरण करने (चारित्र-पालन) से दर्शन व ज्ञान गुण के आवरण का क्षय होता है, जिससे दर्शन व ज्ञान गुण प्रकट होते हैं। इस प्रकार दर्शनोपयोग सम्यग्दर्शन में और सम्यग्दर्शन दर्शनगुण प्रकट करने में तथा दर्शनावरण व दर्शन मोहनीय के क्षय करने में सहायक होता है। इस प्रकार दर्शनोपयोग, सम्यग्दर्शन, दर्शनगुण परस्पर में पूरक व सहायक हैं। आगे जाकर, अंत मे पूर्ण दर्शन, पूर्ण ज्ञान अथवा अनंतदर्शन, अनंत ज्ञान के रूप में प्रकट होकर ये साधक के जीवन के अभिन्न अंग बन जाते हैं। फिर साधक-साधना एवं साध्य एक रूप होकर सिद्धत्व को प्राप्त हो जाते हैं। सिद्धत्व की प्राप्ति में ही जीवन की सिद्धि है, सफलता है, पूर्णता है।" दर्शनावरण कर्म के बंध- हेतु
आगम व कर्म-सिद्धान्त में दर्शनावरण कर्म-बंध के वे ही कारण बताये हैं, जो ज्ञानावरण कर्म बंध के कारण हैं, यथा
गोयमा? नाणपडिणीययाए णाणनिण्ठवणयाए णाणंतराए णाण-णाणप्पदोणं णाणस्यामायणाए णाणविसंवादणाजोगेणं..एवं जसणाणावरणिज्जं नवरंदगणनामघेत्तव्वं। (भगवती, शतक 8, उद्देशक 9, सूत्र 98-99) “तत्प्रदोषनिनवमात्यर्यान्तराययादानोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः"
(तत्त्वार्थसूत्र, अध्ययन 6, सूत्र 11) अर्थ- हे गौतम! 1. ज्ञान की प्रत्यनीकता (विपरीतता) करने से 2. ज्ञान का अपलाप करने (छिपाने) से 3. ज्ञान में अन्तराय डालने से 4. ज्ञान के प्रति द्वेष करने या दोष निकालने से 5. ज्ञान की आशातना (अविनय) करने से 6. ज्ञान विसंवाद योग (व्यर्थ का वाद-विवाद) करने से ज्ञानावरण कर्म का बंध होता है। अथवा 1. प्रदोष 2. निह्नव 3. मात्सर्य 4. अंतराय 5. आसादन और 6. उपघात ये ज्ञानावरण कर्म बंध के हेतु हैं। ये ही सब हेतु दर्शनावरण कर्म- बंध के भी हेतु हैं। मात्र ज्ञान के स्थान पर दर्शन शब्द ग्रहण करना चाहिए।
दर्शनावरण कर्म