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को कभी आने ही नहीं देते। अतः विषय-भोगों की पूर्ति में सुख और अपूर्ति में दुःख मानने वाले व्यक्ति का जीवन सुख - दुःख युक्त ही होता है कामना एवं राग के त्याग से अक्षय - अव्याबाध व अनंत सुख की अनुभूति होती है।
यदि हमारी एक अंगुली किसी दुर्घटना में कट जाये तो हम पुनः उसका निर्माण नहीं कर सकते । शरीर की एक अंगुली या एक बाल का भी हम निर्माण नहीं कर सकते, शरीर की रचना में हम स्वाधीन नहीं हैं, इस प्रकार अनुकूलता - प्रतिकूलता अर्थात् साता - असाता सुख - दुःख रूप में स्वतः उदय व उत्पन्न होती है तथा उस रूप में अंतःकरण में अंकित प्रभाव प्रकट होकर निर्जरित हो जाता है। भोगजनित सुख कैसा भी हो वह पराधीनता, जड़ता (मूर्च्छा) एवं अभाव में आबद्ध करता ही है, जो किसी को भी इष्ट नहीं है, अनिष्ट ही है। इस प्रकार इन्द्रिय-भोग या विषय - सुख वास्तव में तो दुःख रूप ही है अतः त्याज्य है । इस वास्तविकता को जान कर सुख के भोग का सदा के लिए त्याग कर देने में उदयमान सुख की उपयोगिता है। इसके अतिरिक्त जीवन में सुख की अन्य कोई उपयोगिता व महत्त्व नहीं है। कारण कि सुख के भोगी को दुःख भोगना ही पड़ता है। न चाहते हुए भी दुःख विषय-भोग के सुख को त्यागने की शिक्षा देने के लिए ही आता है । दुःख के मूल को ढूँढना ही दुःख से शिक्षा ग्रहण करना है । दुःख का मूल है इन्द्रिय व मन के सुख का भोग । दुनिया में कोई दुःख ऐसा नहीं है जो विषय सुख के भोग के कारण उत्पन्न न हुआ होजिसका कारण सुख का भोग न हो । विषय सुख जो वास्तव में दुःख रूप ही है एवं जिसका फल भी दुःख ही है, परन्तु सुख के भोगी प्राणी की दृष्टि इस तथ्य पर नहीं जाती है। वह सुख भोग के फल रूप में प्राप्त दुःख को मिटाने का तो प्रयत्न करता है, परन्तु इन्द्रिय का सुख भोग नहीं छोड़ता । वस्तुतः यही दुःख का मूल है। इस प्रकार प्राणी दुःख के मूल को तो नहीं मिटाना चाहता है और फल को मिटाना चाहता है । सुख भोग में छिपा हुआ दुःख का बीज ही समय पाकर उदय में आता है और दुःख देता है । इसी कारण से प्राणी अब तक दुःख से मुक्त नहीं हुआ है ।
प्राणी के शरीर में अनेक प्रकार के विकार या विष (हानिकारक पदार्थ) निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं और प्रकृति उन्हें दूर करने के लिए
वेदनीय कर्म
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