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का वेदन होना वेदनीय कर्म का उदय है। शरीर का नीरोग या रोगी होना वेदनीय कर्म का उदय नहीं है। यह नियम है कि सातावेदनीय और असातावेदनीय इन दोनों कर्म प्रकृतियों का उदय एक साथ नहीं होता है। इनमें से किसी एक का ही उदय होता है।
एक ही व्यक्ति के एक ही समय में एक व्यापार में लाभ और दूसरे व्यापार में हानि हो रही है। किसी एक व्यापार में लाभ होने से साता का
और दूसरे व्यापार में हानि होने से असाता का अर्थात् साता-असाता दोनों वेदनीय प्रकृतियों का उदय एक साथ मानना होगा, जो कर्म सिद्धान्त के विपरीत है। अतः जब लाभ की खुशी से हर्ष होता है, तब उस समय व्यक्ति साता का वेदन करता है, उसे साता का उदय कहा है और जिस समय हानि के दुःख में खिन्न होता है, तब असाता का वेदन करता है, उस समय असाता का वेदन माना गया है। अतः लाभ-हानि होने की घटना में कर्म का उदय नहीं है, अपितु उससे सुखी-दुःखी होना कर्म का उदय है। कोई वस्तु तथा उसका शब्द, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि जब तक मनोज्ञ लगते हैं तब तक साता वेदनीय का उदय होता है और वह वस्तु, वे शब्द, वर्ण, गंध, रस आदि सातावेदनीय के उदय में निमित्त कारण बनते हैं और कालान्तर में वह वस्तु तथा वे ही शब्द, वर्ण आदि अमनोज्ञ लगते हैं तब वह ही वस्तु असातावेदनीय के उदय में कारण बन जाती है, अतः सातावेदनीय और असातावेदनीय का उदय जीव के वेदन पर निर्भर करता है, वस्तु पर नहीं। अतः वस्तु की प्राप्ति-अप्राप्ति का कर्मोदय से सम्बन्ध नहीं है। इसी प्रकार शरीर के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि जब तक जीव को इष्ट लगते हैं, स्वर इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ लगते हैं, गति, स्थिति, उत्थान, बलवीर्य, पुरुषकार, पराक्रम जब तक इष्ट लगते हैं तब तक ये शुभनाम कर्म (पुण्य) के उदय में निमित्त कारण बनते हैं और ये ही जब अनिष्ट लगते हैं, तब ये अशुभ (पाप) नामकर्म के उदय में निमित्त बन जाते हैं। अतः नामकर्म का शुभत्व-अशुभत्व वस्तु पर निर्भर नहीं होकर इष्टअनिष्ट अनुभव करने पर निर्भर करता है। अभिप्राय यह है कि किसी जीव का कर्मोदय उस जीव के द्वारा किसी वस्तु के उपयोग पर निर्भर करता है, वस्तु पर नहीं। अतः वस्तुओं की उपलब्धि को जैन दर्शन कर्मोदय से नहीं मानता है, वस्तुओं के उपयोग को कर्मोदय व कर्म बंध में निमित्त
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वेदनीय कर्म