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अन्यथा एक ही व्यक्ति में साता-असाता दोनों वेदनीय के उदय को कभी एक साथ मानना होगा। एक व्यक्ति को मनोज्ञ मधुर शब्द भी सुनाई दे रहे हैं और पास में पड़ी मृत लाश की भयंकर दुर्गन्ध भी आ रही है तो उसके दोनों वेदनीय का उदय मानना होगा, जो कर्म सिद्धान्त के विरुद्ध है।
हिंसा, झूठ, चोरी आदि किसी भी पाप को मन, वचन और काया इन तीनों योगों से करना, कराना, अनुमोदन करना इन नौ प्रकार के कार्यों (प्रवृत्तियों) को आगम में पाप कहा है, इसी प्रकार मन और पांचों इन्द्रियों के विषय-भोगों की इच्छा रूप विकार-विभाव का उत्पन्न होना, काया से उसकी पूर्ति करना अर्थात् विषय-सुख भोगना पाप है। विषय-भोग के सुख के वेदन को पुण्योदय मानना, सातावेदनीय का उदय मानना, पाप को पुण्य मानना है, पाप का अनुमोदन करना है, जो साधक के लिए त्याज्य है। पाप को पुण्य मानना तात्त्विक भूल है।
यदि शरीर के किसी एक अंग या उपांग में उत्पन्न हुए रोग को असातावेदनीय का उदय माना जाय और शेष रहे नीरोग अंगों में सातावेदनीय का उदय माना जाय तो प्रत्येक रोगी व्यक्ति के सातावेदनीय
और असातावेदनीय दोनों का उदय युगपत् मानना होगा जो कर्मसिद्धान्त के सर्वथा विपरीत है। अतः शरीर में रोग के उत्पन्न होने या न होने का वेदनीय कर्म के उदय से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। रोग के कारण जिस समय जीव को दुःखद संवेदना का अनुभव होता है तब उसके असातावेदनीय का उदय होता है। दुःखद संवेदना का अनुभव न होना सातावेदनीय का उदय समझना चाहिए।
स्थानांग सूत्र के नौवें स्थानक में रोगोत्पत्ति के नौ कारण कहे हैं। इनमें अधिक भोजन, कुपथ्य व हानिकारक भोजन, मल-मूत्र का अवरोध आदि हैं। ये सब कारण व्यक्ति के वर्तमान काल की भूलों से संबंधित हैं। इनमें से कोई भी कारण पूर्व जन्म के कर्म से संबंधित नहीं है। जब शरीर में उत्पन्न रोग का कारण ही पूर्व जन्म के कर्म से संबंधित नहीं है तब शरीर से इतर वस्तुएँ धन, धान्य, भूमि, भवन की प्राप्ति का कारण पूर्व जन्म के कर्म के उदय से कैसे हो सकता है, कदापि नहीं हो सकता है। अतः वस्तुओं की प्राप्ति को पूर्व जन्म के कर्मोदय से मानना कर्म-सिद्धान्त सम्मत नहीं है। आशय यह है कि रोग के होने या न होने पर सुख-दुःख
वेदनीय कर्म
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