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आशय यह है कि ज्ञानावरण कर्म के बंध के जो छह हेतु हैं, वे ही छह हेतु दर्शनावरण कर्म बंध के भी हैं। इससे यह फलित होता है कि जिन हेतुओं से जीव के ज्ञान गुण पर आवरण आता है उन्हीं हेतुओं से दर्शन गुण पर भी आवरण आता है। जीव का स्वभाव है निर्विकारता, निर्दोषता, चिन्मयता (संवदेनशीलता) आदि । जीव के निर्दोषता, चिन्मयता आदि गुणों का घात राग, द्वेष, मोह आदि दोष करते हैं । इन दोषों का सेवन करना ही अपने स्वाभाविक ज्ञान का, स्वभाव के ज्ञान का अनादर करना है । क्योंकि ज्ञान वहीं है, जहाँ विरति, वैराग्य एवं संयम है। जैसा कि कहा है‘णाणस्स फलं विरई' अर्थात् ज्ञान का फल विरति है । अतः जहाँ विरतिI संयम है, वहाँ ही ज्ञान का आदर है और जहाँ अविरति है, असंयम है, रति - अरति है, राग - द्वेष है, वहाँ ही ज्ञान का अनादर है। राग-द्वेष से संकल्प-विकल्प उत्पन्न होते हैं जिससे चित्त बहिर्मुखी होता है, अंतरंग चैतन्य का प्रतिभास नहीं होता है। जिससे दर्शन गुण का घात होता है, आवरण आता है ।
दर्शन है चेतनता, निर्विकल्पता । अतः निर्विकल्पता के बाधक व घातक कारण दर्शनावरणीय कर्म के कारण हैं । ज्ञानावरण कर्म बंध के छह कारणों 1 के समान ही दर्शनावरण कर्म बंध के भी छः कारण हैं, जिनका संक्षेप में स्वरूप इस प्रकार है
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दर्शन प्रत्यनीकता- संकल्प - उत्पत्ति व पूर्ति को ही जीवन मानना । निस्संकल्पता- निर्विकल्पता को अकर्मण्यता मानना । अतः संकल्प उत्पत्ति-पूर्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहकर विकल्प करते रहना अर्थात् निर्विकल्पता के विरुद्ध आचरण करना, दर्शन प्रत्यनीकता है । दर्शन निह्नव - दर्शन का गोपन करना (निर्विकल्पता के लिए प्रयत्नशील न होना) स्वतः प्राप्त निर्विकल्पता को सुरक्षित न रखना, दर्शन निह्नव है।
दर्शन–अंतराय— निर्विकल्पता की अनुभूति वर्तमान में न कर उसे कालान्तर में भविष्य में करने के लिए टालना दर्शन अन्तराय है । दर्शन - द्वेष - निर्विकल्पता अकर्मण्यता है, जड़ता है। अचेतन निर्विकल्प होता है। अतः निर्विकल्पता का जीवन में कोई स्थान व महत्त्व नहीं है। इस प्रकार निर्विकल्पता से विद्वेष करना दर्शन द्वेष है।
दर्शनावरण कर्म
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