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व जगने में हेतु बनी है। यह जो प्रकंपन (संवेदन) है, यही दर्शन है। जब उसने यह जाना या विचार किया कि कौन एवं क्या आवाज दे रहा है, तो यह ज्ञान है।
राग का पूर्ण नाश हो जाने पर वीतराग हो जाने पर बहिर्मुखीपने एवं पर की ओर गति का आत्यंतिक क्षय (नाश) हो जाता है जिससे साधक सदा के लिए स्व में स्थित व स्व में अवस्थित हो जाता है। स्व में स्थित व स्थिर होना ही स्वानुभूति है। स्वानुभूति ही स्व-संवेदन है, यही चिन्मयता या चेतनता है।
तात्पर्य यह है कि राग रहित वीतराग होते ही सदा के लिए पूर्ण चिन्मयता की, पूर्ण जड़ता रहित अवस्था की अनुभूति हो जाती है अर्थात् 'अनन्त दर्शन', केवल दर्शन हो जाता है। अनन्त दर्शन की उपलब्धि राग रहते नहीं हो सकती है कारण कि राग के रहते जड़ता रहती ही है। अतः वीतरागता से ही 'अनन्त दर्शन' गुण प्रकट होता है। यह गुण चैतन्य का निज स्वरूप होने से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तो है ही, साथ ही विलक्षण होने से अनिर्वचनीय भी है।
जो बात ज्ञान के विकास पर लागू होती है वही दर्शन के विकास पर भी लागू होती है कारण कि ज्ञान के पहले दर्शन होता है अर्थात् दर्शन के अनुरूप ही ज्ञान होता है। अतः ज्ञान के विकास के साथ दर्शन का विकास एवं दर्शन के विकास के साथ ज्ञान का विकास जुड़ा हुआ है। दोनों गुणों का विकास-हास युगपत् होता है।
यह नियम है कि पहले दर्शन होता है, फिर ज्ञान होता है। परन्तु दर्शन कभी मिथ्या या सम्यक नहीं होता है, फिर ज्ञान कैसे मिथ्या या असम्यक् होता है। इसका समाधान यह है कि दर्शन गुण के प्रकट होने में विकल्पों का अभाव कारण है। उसका विवेक के साथ सीधा सम्बन्ध नहीं होता। परन्तु ज्ञान के साथ विवेक-अविवेक का सम्बन्ध होता है, विवेक युक्त ज्ञान सम्यक् ज्ञान है। विवेक विरोधी ज्ञान मिथ्या ज्ञान है।
ज्ञान अज्ञान रूप भी होता है, परन्तु दर्शन अदर्शन या कुदर्शन रूप नहीं होता है। कारण कि दर्शन के विकास का सम्बन्ध जीवन की संवेदनशक्ति के प्रकटीकरण से है। परन्तु संवदेन की अनुभूति सीमित व क्षणमात्र के लिए होती है। जितना-जितना दर्शन का आवरण हटता जाता है,
दर्शनावरण कर्म