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के आत्यंतिक क्षय से होती है और नौ प्रकार की है।) क्षायोपशमिक अवस्था का उपयोग भी चार घाती कर्मों से संबंधित है जो चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन दो मोहनीय व पाँच अंतराय रूप है। क्षायोपशमिक अवस्था 'पर' पर आधारित होने से अधूरी होती है, पूर्ण नहीं होती।
दर्शन के अनुरूप ज्ञान होता है। चक्षु-अचक्षु दर्शन की स्थिति में सर्वप्रथम अवग्रहरूप मतिज्ञान होता है, जोईहा, अवाय, धारणा रूप में आगे बढ़ता जाता है। या यों कहें कि दृश्य पदार्थ या पर पदार्थ इन्द्रिय का विषय बनता है, तब प्रथम चक्षु अथवा अचक्षु दर्शन होता है, फिर मतिज्ञान होता है। इस स्थिति से दर्शन संवेदन का एवं ज्ञान संवेदन के आधार पर जानकर धारणा का कार्य करता है। वह धारणा दो प्रकार की होती हैसंपकित वस्तु की जानकारी रूप एवं संपकित वस्तु के संवेदन रूप। संपर्कित वस्तु के संवेदन रूप ज्ञान में प्रकट होने पर वह संवेदना सुखद है या दुःखद है, अनुकूल प्रतीत हो रही है या प्रतिकूल प्रतीत हो रही है, इसका अनुभव व जानकारी होती है, जो वेदना कही जाती है। अनुकूल वेदना को सातावेदनीय और प्रतिकूल वेदना को असातावेदनीय कहते हैं। 'वेदना' दर्शन का बाह्य प्रकट फल है इसलिए दर्शनावरण कर्म के पश्चात् वेदनीय कर्म का वर्णन आया है।
इन्द्रिय-ज्ञान के आधार पर होने वाले विषय-सुख को सुख मानना, सुखाभास को सुख मानना है, जो वास्तविकता नहीं है, भ्रान्ति है। यदि विषय सुख सत्य होता तो भोगों और भोग्य पदार्थ दोनों के विद्यमान रहते हुए उस सुख का अनुभव होते रहना चाहिये था। परन्तु ऐसा कभी नहीं होता है। होता यह है कि जो इन्द्रियसुख भोगा जाता है-वह सुख प्रतिक्षण क्षीण होता रहता है। पूर्ववर्ती क्षण में जितना सुख था, पश्चात्वर्ती क्षण में उतना नहीं रहता और अंत में सुख नीरसता में बदलता है, फिर चाहे कितना ही बढ़िया से बढ़िया दृश्य देखें अथवा संगीत सुनें अथवा भोजन करें अथवा कोमल- शीतल स्पर्श का सुख भोगें। अतः विषय-सुख के त्याग में ही कल्याण है। अनन्त दर्शन
राग के साथ संकल्प-विकल्प जुड़े हुए हैं। संकल्प-विकल्प के साथ जड़ता जुड़ी हुई है। 'जड़ता', 'चिन्मय' गुण की विघातक व आवरक है।
दर्शनावरण कर्म