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दर्शन से ठीक विपरीत परिभाषा ज्ञान की है। ज्ञान सविकल्प, साकार, सविशेष, बहिर्मुख-चित्प्रकाश व चिंतन रूप होता है। यद्यपि ज्ञान और दर्शन ये दोनों गुण चेतना के हैं, परन्तु दोनों गुणों के लक्षण एक दूसरे से भिन्न हैं। इसलिए जब दर्शनोपयोग होता है, तब ज्ञानोपयोग नहीं होता है
और जब ज्ञानोपयोग होता है, तब दर्शनोपयोग नहीं होता है। यहाँ पर यह बात विशेष ध्यान देने की है कि जैनागमों में कहीं यह नहीं कहा कि ज्ञान के समय दर्शन नहीं होता और दर्शन के समय ज्ञान नहीं होता, अपितु यह कहा है कि ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग, ये दोनों उपयोग किसी भी जीव को एक साथ नहीं होते। क्योंकि ज्ञान और दर्शन ये दोनों गुण आत्मा के लक्षण हैं, अतः ये दोनों गुण आत्मा में सदैव विद्यमान रहते हैं। इनमें से किसी भी गुण का कभी भी अभाव नहीं होता है। यदि ज्ञान या दर्शन गुण का अभाव हो जाये, तो चेतना का ही अभाव हो जाये, कारण कि गुण का अभाव होने पर गुणी का अभाव हो जाने का प्रसंग उपस्थित होता है। अतः चेतना में ज्ञान और दर्शन, ये दोनों गुण सदैव विद्यमान रहते हैं। परन्तु इन दोनों गुणों में से उपयोग एक समय में किसी एक ही गुण का होता है, दोनों गुणों का नहीं होता है।
उपर्युक्त तथ्य से यह भी फलित होता है कि ज्ञान गुण और ज्ञानोपयोग एक नहीं हैं तथा दर्शन गुण और दर्शनोपयोग एक नहीं हैं, दोनों में अंतर है, जैसा कि षट्खंडागम की धवलाटीका पुस्तक 2 पृष्ठ 411 पर लिखा है-"स्व–पर को ग्रहण करने वाले परिणाम को उपयोग कहते हैं। वह उपयोग ज्ञान मार्गणा और दर्शन मार्गणा में अंतर्भूत नहीं होता है।' इसी प्रकार पन्नवणासूत्र में भी ज्ञानदर्शन द्वार को अलग कहा है और उपयोग द्वार को अलग से कहा है। तात्पर्य यह है कि गुणों की उपलब्धि का होना और उनका उपयोग होना, ये दोनों एक नहीं हैं,दोनों में अंतर है।
उपलब्धि और उपयोग के अंतर को उदाहरण से समझें। मानव में गणित, भूगोल, खगोल, इतिहास, अर्थशास्त्र, विज्ञान आदि अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता है, परन्तु किसी ने गणित व भूगोल इन दो विषयों का ज्ञान प्राप्त किया है, तो उसे इन दोनों विषयों के ज्ञान की उपलब्धि हुई, यह कहा जायेगा। और अन्य विषयों के ज्ञान की उपलब्धि उसे
दर्शनावरण कर्म