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यहाँ प्रसंगवश यह विचार करना अपेक्षित है कि श्वेताम्बर आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर एवं दिगंबर आचार्य श्री वीरसेन केवली के दोनों उपयोग युगपत् मानते हैं। यह कहाँ तक युक्तिसंगत है?
इस सम्बन्ध में प्रथम तो मेरा यह निवेदन है कि प्राचीन काल में सभी जैन संप्रदायों में केवली में दोनों उपयोग युगपत् नहीं होते हैं, यह मान्यता थी। जैसा कि कषायपाहुड में लिखा है-केवलणाण-केवलदंगण मुक्कस्यउवजोगकालोजेण"अंतोमुत्तमेत्तो'त्तिभणिदो तेणणव्वदे जल केवलणाणदंगणाण-मक्कमेणउत्ताणं लेदित्ति।" -कषाय पाहुड, पुस्तक 1 पृ. 319 | अर्थात् चूंकि केवलज्ञान और केवलदर्शन का उत्कृष्ट उपयोग काल अंतर्मुहूंत कहा है, इससे जाना जाता है कि केवलज्ञान ओर केवलदर्शन की प्रवृत्ति एक साथ नहीं होती। कषाय पाहुड के इस कथन से ज्ञात होता है कि उस समय केवली के दोनों उपयोग युगपत नहीं होने की मान्यता सभी जैन सम्प्रदायों में प्रचलित थी। ऊपर विशेषावश्यक भाष्य के उद्धरण में इसे स्पष्ट स्वीकार किया गया है।
केवली के दोनों उपयोग युगपत होने के समर्थन में षटखण्डागम की धवलाटीका पुस्तक 1 व 13 तथा कसायपाहुड पुस्तक 1 की जय धवला टीका आदि में यह युक्ति दी गई है कि केवली के दोनों आवरण कर्मों का क्षय युगपत् होने से दोनों उपयोग भी युगपत् होते हैं और यही युक्ति सन्मतितर्क प्रकरण में आचार्य श्री सिद्धसेन ने भी दी है।
इस सम्बन्ध में यह बात विचारणीय है कि छद्मस्थ जीवों के भी दोनों कर्मों के आवरण का क्षयोपशम सदैव रहता है जिससे ज्ञान और दर्शन गुण की लब्धि प्रकट होती है और उस लब्धि में प्रवृत्ति से उपयोग होता है। यदि कर्मों के आवरणों का क्षयोपशम न हो अर्थात् केवल सर्वघाती स्पर्द्धकों का ही उदय हो, तो न तो ज्ञान-दर्शन गुण की लब्धि होगी और न उपयोग ही। अतः छद्मस्थ के भी उपयोग दोनों कर्मों के आवरणों के क्षयोपशम से ही होता है। यही तथ्य केवली पर भी घटित होता है। अंतर केवल इतना ही है कि दोनों कर्मों के क्षयोपशम से छद्मस्थ के ज्ञान-दर्शन गुण आंशिक रूप में प्रकट होते हैं और इन दोनों कर्मों के संपूर्ण क्षय से केवली के ज्ञान-दर्शन गुण सर्वांश (पूर्ण रूप) में प्रकट होते हैं। इस प्रकार केवली और छद्मस्थ के ज्ञान-दर्शन गुणों की उपलब्धि में अंशों का ही अंतर है।
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दर्शनावरण कर्म