________________
जाती है, ऐसा नहीं है। अतः उपयोग न होने से ज्ञान गुण व दर्शन गुण का न तो अभाव होता है और न ही वे न्यूनाधिक होते हैं। इन गुणों का न्यूनाधिक होना चारित्र मोहनीय कषाय की न्यूनाधिकता पर निर्भर करता है। अर्थात् जितना-जितना कषाय घटता जाता है, उतना-उतना दर्शन गुण और ज्ञान गुण प्रकट होता जाता है और जितना कषाय बढ़ता जाता है, उतना ज्ञान और दर्शन गुण पर आवरण बढ़ता जाता है। ज्ञानोपयोग : दर्शनगुण की उपलब्धि में सहायक
स्वानुभव या चैतन्य के बोध अथवा आत्मसाक्षात्कार के लिए चाह, चर्चा व चिंतन रहित होना आवश्यक है, भले ही वह सत् चर्चा व सत् चिन्तन ही क्यों न हो। परन्तु जब तक साधक प्रवृत्ति (क्रिया) करने के राग के उदय के कारण चर्चा व चिन्तन रहित नहीं रह सकता हो तो उसके लिए आवश्यक है कि वह सत् चर्चा और सत् चिन्तन करे। कारण कि यदि वह सत् चर्चा और सत् चिन्तन नहीं करेगा तो राग के उदय के कारण से असत् चर्चा और असत् चिंतन उत्पन्न होगा जिससे राग की वृद्धि होगी। असत् चर्चा और असत् चिंतन सर्वथा त्याज्य हैं तथा सत् चर्चा
और सत् चिंतन आदरणीय हैं। क्योंकि सत् चर्चा और सत् चिंतन रूप ज्ञानोपयोग राग से रहित करने में सहायक है, अतः वे साधना के अंग हैं, परन्तु साधना को ही साध्य न बना लें, इसके लिए सदैव जागरूक रहने की आवश्यकता है। कारण कि साधना को साध्य मान लेना भूल है और भूल के रहते साध्य की प्राप्ति संभव नहीं है।
“साध्य' साधक का सर्वस्व होता है और साधना उस साध्य की उपलब्धि में सहायक होती है। अतः साधना का महत्त्व है, परन्तु साधना को ही सर्वस्व समझ लेना, साध्य मान लेना भूल है। वैसे ही सहायक को सहायक न मानना भी दूसरी भूल है और सहायक को बाधक मान लेना तीसरी भयंकर भूल है। साधक को इन भूलों से बचना चाहिए।
जो साधना सहायक है उस साधना को साध्य मान लेने रूप पहली भूल से प्रगति रुक जाती है। कारण कि वह साधक सहायक (साधना) में ही अटक जाता है, वह आगे नहीं बढ़ पाता है। सहायक को सहायक न मानने पर दूसरी भूल से साधक में सहायक (साधन या साधना) के प्रति रुचि नहीं जगती। रुचि न जगने से उस ओर चरण ही नहीं बढ़ते।
84
दर्शनावरण कर्म