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नहीं है, यह भी कहा जायेगा। गणित और भूगोल इन दो विषयों में से भी अभी वह गणित का ही चिंतन, अध्ययन या अध्यापन कार्य कर रहा है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उसमें भूगोल के ज्ञान का अभाव है। उसे इस समय भी भूगोल का ज्ञान उपलब्ध है, परन्तु वह उसका उपयोग नहीं कर रहा है। एक दूसरा उदाहरण और लें- एक व्यक्ति में अनेक वस्तुओं के क्रय करने की क्षमता है, परन्तु उसने रेडियो और टेलीविजन ही खरीदा है तथा इस समय वह रेडियो चला रहा है, टेलीविजन नहीं चला रहा है, तो यह कहा जायेगा कि व्यक्ति में क्षमता तो अनेक वस्तुओं को प्राप्त करने की है, उपलब्धि उसे रेडियो और टेलीविजन की है और उपयोग वह रेडियो का कर रहा है। यह क्षमता, उपलब्धि और उपयोग में अंतर है। किसी गुण की उपलब्धि या लब्धि, कर्मों के क्षयोपशम या क्षय से होती है
और 'उपयोग' लब्धि के अनुरूप व्यापार से होता है। जैसा कि उपयोग की परिभाषा करते हुए कहा गया हैउपयुज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रति व्यापार्यते जीवोऽनेनेत्युपयोगः।
-प्रज्ञापना सूत्र, 24वें पद की टीका अर्थात् वस्तु के जानने के लिए जीव के द्वारा जो व्यापार किया जाता है, उसे उपयोग कहते हैं।
__“उभयनिमित्तवशादुत्पद्यमानश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः।१"इन्द्रियफलमपयोगः।" (सर्वार्थसिद्धि अ.2 सूत्र 9 व 18) अर्थात् जो अंतरंग और बहिरंग दोनों निमित्तों से उत्पन्न होता है और चैतन्य का अनुसरण करता है, ऐसा परिणाम उपयोग है । अथवा इन्द्रिय का फल उपयोग है।
'स्व-परग्रहणपरिणाम उपयोग:'-धवलाटीका, पुस्तक 2 पृ. 411 अर्थात् स्व-पर को ग्रहण करने वाला परिणाम (भाव) उपयोग है। वत्थुणिमित्तो भावो जादो जीवस्य लेदि उवओगो।।
-पंचसंग्रह, गाथा 198 अर्थात् वस्तु के निमित्त से जीव के भाव का प्रवृत्त होना उपयोग है।
उपर्युक्त परिभाषाओं से यह फलित होता है कि ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से या क्षय से होने वाले गुणों की प्राप्ति को लब्धि कहते हैं और उस लब्धि के निमित्त से होने वाले जीव के परिणाम या भाव का प्रवर्त्तमान होना उपयोग है।
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दर्शनावरण कर्म